लोभ कहीं नहीं रुकता है कहानी के माध्यम से
एक सूफी ने अपने शिष्य से कहा , कोई भी जीवन को तब तक नहीं समझ सकता जब तक कि वह लालच और नामुमकिन के अंतर्संबंध को न समझ लें !
‘ शिष्य बोला , ‘ यह तो ऐसी पहेली है कि . जिसे समझना मेरे लिए संभव नहीं है । ‘ सूफी ने कहा , ‘ तुम सीधे अनुभव से समझ सकते हो तो पहेलियों में उलझने की क्या ज़रूरत है ?
‘ वह अपने शिष्य को पास के ही बाजार में ले गए जहां अंगरखे बिकते थे । एक दुकान पर जाकर उन्होंने दुकानदार से कहा , ‘ अपने सबसे बेहतरीन अंगरखे दिखाओ । कीमत की परवाह मत करना । मैं दिल खोलकर खर्च करना चाहता हूं
‘ दुकानदार ने एक बहुत सुंदर अंगरखा दिखाया और उसकी एक बड़ी कीमत बताई । सूफी बोले , ‘ मैं ऐसा ही कोई अंगरखा खरीदना चाहता था , लेकिन गले के आसपास थोड़ा गोटा होता और थोड़ा फर लगा होता तो बहुत ही अच्छा होता । मैं कह सकता हूं , तब यह मेरे इच्छित परिधान जैसा होता ।
” दुकानदार बोला , ‘ चिंता मत कीजिए , आप जैसा अंगरखा कह रहे हैं , ठीक बिलकुल वैसा मेरे कारखाने में पड़ा है । मैं अभी मंगवा देता हूं । ‘ कुछ देर के लिए वह कारखाने में गया और उसी अंगरखे पर गोटा और फर लगाकर ले आया ।
सूफी ने जब उस अंगरखे की कीमत पूछी तो दुकानदान ने उसकी कीमत पहले से बीस गुना बताई । सूफी बोले , बहुत बढ़िया । मैं दोनों अंगरखे खरीदना चाहता हूं ।
‘ अब यह तो नामुमकिन हो गया क्योंकि अंगरखा तो एक ही है । सूफी अपने शिष्य को यह दिखा रहे थे कि लोभ का पूरा होना एक तरह से असंभव ही है । इसका सदा अपूर्ण रहना लोभ के साथ निहित है । लोभ को परितृप्त करना असंभव है क्योंकि लोभ का अर्थ है और … और … और पाने की इच्छा और उस ‘ और ‘ की कोई सीमा नहीं है ।
लोभ कहीं रुकता है कहीं थमता है वोतो नामुमकिन हद तक ले जाता है और फिर भी अधूरा ही रहता है