काशिराज का न्याय की कहानी
करुणा काशिराज की महारानी थीं । उनका जन्म राजवंश में हुआ था । महल में सुख – सुविधाओं की कोई कमी न थी । सेवा के लिए कई दास – दासियाँ थे । उनके चारों ओर सुख ही सुख था । दुख क्या होता है , इस बात को वे जानती न थीं ।
वे बहुत सुंदर थी । राजा उनसे बहुत प्रेम करते थे । उनके मुख से बात निकलने भर की देर थी , उसे होने में देर नहीं लगती थी । एक बार कड़कड़ाती ठंड में रानी ने वरुणा नदी में स्नान करने का विचार किया । राजा ने आज्ञा दी कि वरुणा की ओर जाने वाले सारे रास्ते रोक दिए जाएँ और सब घाट खाली कर दिए जाएँ । आदेश होते ही रास्ते रोक दिए गए । जो लोग पार्टी के पास , झोंपड़ियाँ बनाकर रह रहे थे , वे भी उन्हें छोड़कर चले गए ।
रानी अपनी सौ सखियों के साथ घाट पर पहुंची । उन्होंने अपनी सखियों के साथ नदी की झिलमिल करती धारा में स्नान किया । पानी बहुत ठंडा था । ठंडे पानी में स्नान करने के कारण रानी बुरी तरह ठिठुर गईं और थर – थर काँपने लगीं । कँपकँपाते होंठों से उन्होंने कहा- “ मैं ठंड से मरी जा रही हूँ । जल्दी आग जलाओ । “रानी की आज्ञा पाकर सखियाँ पास के जंगल से लकड़ियाँ लेने चलीं । रानी ने कहा- ” इतनी दूर कहाँ जा रही हो ?. देखो , पास ही फूस की झोंपड़ी है । इसी में आग लगा दो । ”
इस पर एक सखी ने कहा ” महारानी ! ऐसा न करें । यह झोपड़ी न जाने किस गरीब की होगी । झोंपड़ी के जलजाने से वह बेसहारा हो जाएगा । इस ठंड में वह बेचारा कहाँ जाएगा ?
” यह सुनकर रानी को क्रोध आ गया । वे चिल्लाकर बोलीं- “ दूर हो । फूस की इस पुरानी झोंपड़ी की तुम्हें इतनी चिंता है और मेरी कुछ भी नहीं । मेरी आज्ञा का तुरंत पालन करो । “
रानी की हठ देखकर सखियों ने झोंपड़ी में आग लगा दी । झोंपड़ी धू – धू करके जल उठी । आग की चिनगारियाँ उड़कर एक झोंपड़ी से दूसरी झोपड़ी पर गिरने लगीं । आग फैलती गई । थोड़ी देर में ही घाट की सब झोंपड़ियाँ जलकर राख हो गई । शीत से काँपती रानी को आग की लपटों की गरमी बहुत अच्छी लगी । आग तापकर वे अपनी सखियों के साथ राजमहल में लौट आई ।
दूसरे दिन काशिराज अपनी राजसभा में आए ही थे कि जिनकी झोंपड़ियाँ रानी ने जला दी थीं , वे राजदरबार में
आ पहुँचे । कांपते हुए परे गले से उन्होंने राजा को अपनी दुख परी कहानी सुनाई । अपनी प्रजा की बातें सुनकर राजा का सिर लज्जा से झुक गया । उनका चेहरा कोष से तमतमा उठा । वे सभा से उठकर एकदम राजमहल में चले गए ।
क्रोध में राजा ने कहा ” रानी ! तुमने दीन – दुखियों के घर जला दिए । तुम्हारा यह कैसा राजधर्म है ?
” यह सुनते रानी रूठकर बोली- “ उन फूस की पुरानी टूटी – फूटी झोंपड़ियों को आप घर कह रहे हैं । उनके न रहने से किसी की क्या हानि हो सकती है ? अपनी रानी के प्रमोद के लिए तो लोग न जाने कितना धन खर्च कर डालते हैं और आप घास – फूस की झोंपड़ियों के लिए क्रोध कर रहे हैं ।
” अपने क्रोध को दबाकर राजा बोले- ” जब तक तुम राजरानी हो , दीन की झोंपड़ी का मूल्य नहीं समझ सकती । मैं तुमको समझाऊँगा । “
राजा की आज्ञा से दासियों ने महारानी के राजसी वस्त्र और आभूषण लतार लिए और उन्हें भिखारिन के कपड़े पहना दिए । रानी को राजमहल से बाहर ले जाकर राजा ने कहा- “ जाओ , दीन होकर घर – घर भीख माँगो । तुमने अपने सुख के लिए जिन झोंपड़ियों को जला दिया था , उन्हें तुम्हें बनवाकर देना होगा । मैं तुम्हें एक वर्ष का समय देता हूँ । एक वर्ष बाद तुम राजसभा में आना और सबको बताना कि दीन की झोंपड़ी का क्या मूल्य है । ” रानी एक वर्ष तक राजमहल से बाहर रहीं । शीत , गरमी और वर्षा सहते हुए उन्होंने कठिन परिश्रम किया । तब जाकर पूरे एक वर्ष में झोंपड़ियाँ बनकर तैयार हुई । अब रानी को झोंपड़ी का वास्तविक मूल्य सगहा में आ गया ।