एक अंधे बच्चे की कहानी | Story of a blind child in hindi

एक अंधे बच्चे की कहानी 

वंशी को अपनी एक आँख खराब होने का दुख न था, क्योंकि वह सोचता था कि इस संसार में और भी बहुत-से लोग हैं, जिनके अंगों में कोई न कोई खराबी है। आज तक किसी ने न तो मोहल्ले में और न स्कूल में ही उसे चिढ़ाया और न कोई उसपर कभी हंसा था। उनके व्यवहार से ऐसा लगता था जैसे उसकी दोनों आँखें सबकी तरह सलामत हैं और वह सबके जैसा ही है। लेकिन जब से सतीश ने उसकी कक्षा में प्रवेश लिया था, वंशी को लगने लगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है। वैसे सतीश अच्छा लड़का था परंतु उसमें सबसे बड़ा ऐब यही था कि दूसरे में जब कोई कमी देखता तो फिर उसके पीछे ही पड़ जाता था।

कुछ समय बाद ही वह वंशी को ‘समदर्शी’ कहकर चिढ़ाने लगा। धीरे-धीरे सभी उसे इसी नाम से पुकारने लगे। इस कारण वंशी क्रोध व दुख से भर जाता। 

एक दिन तंग आकर उसने कक्षा अध्यापक से शिकायत कर दी। कक्षा अध्यापक ने सतीश को नसीहत दी और कठोर दंड देने की चेतावनी दी। इसके बाद तो सतीश उसे और ज्यादा परेशान करने लगा।

एक अंधे बच्चे की कहानी |

एक दिन वह घर आकर खूब रोया। पूरी बात सुनकर माँ ने‌ समझाया,ईश्वर ने ही बनाया है तुझे, वही तेरे लिए कुछ करेगा।”

दो दिन बाद ही खेलते समय सतीश की एक आँख पर गेंद की करारी चोट लगी। चोट गहरी थी। उसे अस्पताल ले जाया गया और फिर कई दिनों तक सतीश स्कूल नहीं आया।

एक दिन वंशी सतीश से मिलने गया। परंतु सतीश ने उससे मिलने से मना कर दिया।आँख में थोड़ी राहत मिलते ही वह स्कूल चला आया। उसकी घायल आँख पर अब भी पट्टी बँधी थी।

कक्षा के बाहर बरामदे में खड़ा वह अपने साथियों को आपबीती सुना रहा था। वंशी चुपके से उसके पास जाकर उधर खड़ा हो गया, जिधर आँख पर पट्टी बंधी थी। फिर आहिस्ते से कान के पास मुँह ले जाकर बोला, “क्यों भाई, नज़र तो आ रहा हूँ न? मैं हूँ तुम्हारा दोस्त वंशी! तुम्हारे शब्दों में समदर्शी!”

सतीश गुस्से से बोला, “समदर्शी जो है वही रहेगा। दो-चार रोज़ में पट्टी खुल जाएगी, फिर देखना कि समदर्शी कौन है!”

दूसरे दिन वह स्कूल आया, तो उसकी आँख पर पट्टी न थी। आँख बुरी तरह लाल थी। असहनीय दर्द होता था। मम्मी ने समझाया भी था, लेकिन वह न माना था और पट्टी फेंककर स्कूल चला आया था। सतीश के साथियों ने उसको कहा, “गजब किया तुमने सतीश, इतनी जल्दी आँख पर से पट्टी उतार दी। कुछ हो गया तो?”

सारा दिन उसने बेचैनी में गुजारा। दर्द से बेहाल सतीश घर जाते ही बिस्तर पर चित हो गया। उसे कुछ होश न था। कब मम्मी-पापा आए, कब डॉक्टर को बुलाया, कब आँख पर वापस पट्टी बँधी, उसे कुछ पता न था। डॉक्टर अंकल उसके पिता जी के गहरे दोस्तों में से थे। इसीलिए शायद पिता जी को डाँट रहे थे, “खयाल रखना था तुम्हें! अब भुगतो। दुआ करो कि ऑपरेशन कामयाब हो…!”

‘आँख की झिल्ली से खून रिस रहा है, जो बड़ा खतरनाक साबित हो सकता है। सुनकर सतीश डर गया, “उफ़! अब मैं क्या करूँ? क्या मैं भी समदर्शी बन जाऊँगा? सब मेरी ही गलती है। मैं ही वंशी को तंग करता था। उसने तो हमेशा सहनशीलता से काम लिया था। मैंने ही भूल की। काश मैं ही दो-चार दिन के लिए उसकी तरह सहन कर पाता। आँखों से पट्टी न खोलता। अब न जाने क्या होगा? ऑपरेशन में क्या होगा? कहीं आँख चली गई, तो!…” वह इन्हीं विचारों में था कि नींद ने उसे घेर लिया।सुबह जब उसे अस्पताल ले जाने की तैयारी होने लगी, तो वह मुँह से कुछ न बोला।

ऑपरेशन हुआ और सफल रहा। डॉक्टर अंकल ने पापा को बधाई देते हुए कहा,’अब तो पंद्रह दिन पट्टी न खोलने देना।” पापा हर्ष-विह्वल हो कुछ कहने जा रहे थे कि सतीश बीच में ही बोल उठा, “डॉक्टर अंकल! जब तक आप नहीं कहेंगे, पट्टी नहीं खोलूंगा।”

जितने दिन सतीश की आँखों पर पट्टी बँधी रही, वह विभिन्न विचारों में खोया रहा। ‘समदर्शी’ अब उसे वंशी के नाम से याद आता था।

जब आँखें स्वस्थ हो गईं, तो वह स्कूल गया और अपने साथियों से सबसे पहले वंशी के बारे में पूछा। इतने में वंशी आता दिखाई दिया, तो सतीश लपककर उसके पास पहुंचा और उसे में भर लिया मेरा अच्छा दोस्त मुझे माफ कर दो अब मैं तुम्हें कभी नहीं चिढाऊंगा

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