अहिंसा की विजय की कहानी | the story of nonviolence

 अहिंसा की विजय की कहानी

एक बार महात्मा बुद्ध मगध की राजधानी राजगृह से चलकर श्रावस्ती पहुँचे । श्रावस्ती कोसल की राजधानी थी । वर्तमान अयोध्या के आसपास का प्रदेश उस समय कोसल कहलाता था । वहाँ का राजा प्रसेनजित महात्मा बुद्ध का शिष्य था ।


 श्रावस्ती पहुँचने पर महात्मा बुद्ध ने राजा को बड़ा व्याकुल पाया । पूछने पर राजा ने कहा ” भगवान । अंगुलिमाल डाकू से मेरी प्रजा बड़ी त्रस्त है । इसी से मैं बहुत चिन्तित हूँ । क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आता । ” 



” महात्मा बुद्ध ने राजा को धीरज बंधाया और कहा कि ” मैं तुम्हारी चिन्ता दूर करूँगा । अंगुलिमाल बड़ा भयंकर डाकू था । उसके अत्याचार से प्रसेनजित की प्रजा त्राहि – त्राहि कर रही थी । उसने हजार आदमियों की हत्या करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी । परन्तु वह कितने आदमी मार चुका , इसका हिसाब रखना उसके लिए कठिन काम था । इसके लिए उसने एक युक्ति निकाली । वह जब भी किसी का वध करता तो उसकी एक अंगुली काट लेता । इस प्रकार उसके पास अंगुलियों की एक माला – सी बनती जा रही थी जिसे वह गले में डाले रहता । इसी कारण उसका नाम ‘ अंगुलिमाल ‘ पड़ गया था ।


 अंगुलिमाल का नाम सुनकर देश के लोग काँप उठते थे । जिधर से वह निकल जाता , उधर चीख पुकार मच जाती । उसकी क्रूरता की कहानियाँ दूर – दूर के देशों में भी फैली हुई थीं । 


प्रसेनजित से बिदा लेकर महात्मा बुद्ध उस जंगल की ओर चल पड़े जिसमें अंगुलिमाल रहता था । जहाँ से जंगल शुरु होता था , वहाँ राजा की ओर से पहरेदार तैनात था जो उधर जानेवालों को सावधान कर देता था और उन्हें रोक देता था । महात्मा बुद्ध भी जब उस ओर चले तो पहरेदार उनके पास पहुँचा , वह जानता था




कि बुद्ध जैसे महात्या का कोई कुल बिगाड़ नहीं सकता , परन्तु वह अपना कर्तव्य समझकर बुद्ध के चरण पकडकर बोला- ” महाराज , टयर भयंकर डाकू अंगुलिमाल रहता है । उससे प्राणों का खतरा है । कृपया उधार न जाएँ । 

” महात्मा बुद्ध से और उन्होंने पहन्दार के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ” मेर लिए किसी प्रकार को चिन्ता न करो । ” फिर वे आगे बढ़ गए । दोपहर का समय था । चारों ओर पेड़ों ने छाया कर रखी थी । जंगल की राह चलना आसिन नहीं होता । महात्मा बुद्ध भी कुछ थके – थके से लग रहे थे , पर वे रुके नहीं आगे बढ़ते गए । उनका हृदय संसार के कष्टों को देखकर दुःखी था , परन्तु अपने ज्ञान से उनके मुख पर सदैव मुस्कान रहती थी , और ललाट सदा चमकता रहता था । ” आदमी आदमी को मारता क्यों है ? जीव , जीव को देखकर प्रसन्न क्यों नहीं होता ? ” इन्हीं बातों पर विचार करते हुए महात्मा बुद्ध जंगल की राह बढ़े जा रहे थे कि अचानक उन्हें कोई कठोर और भारी आवाज सुनाई दी , ” ठहर जा !


 ” ध्यानमग्न होने के कारण महात्मा बुद्ध आगे ही बढ़ते गए । थोड़ी देर में वे ही शब्द फिर सुनाई पड़े ” ठहर जा ! ” महात्मा बुद्ध रुक गए । तुरन्त ही घनी झाड़ियाँ चीरती हुई एक विकराल मूर्ति आ खड़ी हुई । ऊँचा कद , काला शरीर , भयानक चेहरा , लाल आँखे , विखरे बाल , बड़ी – बड़ी मूछे , लम्बी मजबूत भुजाएँ , चौड़ा सीना और हाथ में कटार । निश्चय ही यह मनुष्य नहीं , कोई दैत्य था । उसके गले में अंगुलियों की माला देखकर बुद्ध को पहचानते देर न लगी कि यही अंगुलिमाल डाकू है । 


महात्मा बुद्ध ने उस पर अपनी दृष्टि डाली । उनकी नजर में भय न था , प्यार था । उन्होंने प्रेमपूर्वक उस भयानक डाकू से कहा- ” मैं तो ठहर गया , भला तू कब ठहरेगा ? 

” अंगुलिमाल चकित हो उठा । उसके सामने आनेवालों की हमेशा भय से घिग्घी बँध जाया करती थी । आज तक उसे कोई ऐसा आदमी न मिला था जिसने उससे आँख से आँख मिलाकर बात की हो । यह कौन है जो डरना तो दूर रहा , शांतिपूर्वक मुस्करा रहा है ? महात्मा फिर बोले- ‘ बोल , कब ठहरेगा तू ? ” अंगुलिमाल पर महात्मा की बातों का जादू का – सा असर हुआ।वह विनीत स्वर में बोला- ” महात्मा , मैं आपकी बात नहीं समझ सका । “



बुद्ध बोले – ” अरे , जीवन में तो जन्म से मरण तक वैसे ही बहुत दुःख हैं । तू उसे अपनी क्रूरता के कारनामों से क्यों बढ़ा रहा है ? मै तो ज्ञान प्राप्त कर बन्धन से छूट गया , पर तू जो इस प्रकार मार – काट का काम अभी करता जा रहा है , इनसे कब छुट्टी लेगा ? बोल कब ठहरेगा तू ? “

 वह डाकू जिसने डर कभी न जाना था , जिससे सारी दुनिया काँपती थी , आज एक निशस्त्र महात्मा के तेज से काँप रहा था । सहसा वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला- ” महात्मन् मुझे राह दिखाएँ । मेरे सामने अँधेरा – ही – अँधेरा है । 


” बुद्ध ने उसको शांति , दया और प्रेम का उपदेश दिया । अंगुलिमाल की आँखें खुल गईं । उसके मन का अन्धकार दूर हो गया । उसने अंगुलियों की माला तोड़ डाली और कटार दूर फेंक दी । अंगुलिमाल ने हिंसा का जीवन सदा के लिए त्याग दिया और वह भगवान बुद्ध का शिष्य बन गया ।

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