पारितंत्र किसे कहते हैं यह कितने प्रकार के होते हैं?

पारितंत्र किसे कहते हैं

पृथ्वी के पृष्ठ पर अनेक प्रकार के जीवधारी रहते हैं। सभी सजीव, जैसे कि पेड़-पौधे, जन्तु और सूक्ष्मजीव, परस्पर तथा परिवेशी भौतिक पर्यावरण से भी अन्योन्यक्रिया करते हैं एवं प्रकृति में एक संतुलन बनाए रखते हैं। इससे राजीव जगत की एक स्वपोषी या क्रियात्मक इकाई का निर्माण होता है जो एक पारितंत्र कहलाता है। अत: एक पारितंय, जैव घटक, जिसमें सजीव जीवधारी सम्मिलित होते हैं, तथा अजैव, जिसमें तापमान, वर्षा, पवन, मृदा, तथा खनिज इत्यादि भौगोलिक कारक सम्मिलित होते हैं, के बीच अन्योन्यक्रिया से निर्मित होता है।

पारिस्थितिकी तंत्र का जनक कौन है?

एक प्रशिया वनस्पतिशास्त्री, भूगोलवेत्ता, प्रकृतिवादी और खोजकर्ता, अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट को पारिस्थितिकी के जनक कहा जाता है।

पारितंत्र कितने प्रकार के होते हैं?

पारितंत्र, एक छोटे तालाब से लेकर एक विशाल धन या समुद्र तक अत्यन्त विविधतापूर्ण आकार का हो सकता है। अनेक पारिस्थितिकी विज्ञानी, समस्त जैवमंडल को एक ग्लोबी (वैश्विक) पारितंत्र के रूप में देखते हैं जिसमें पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी स्थानिक पारितंत्र समाहित हैं। चूंकि यह तंत्र अत्यन्त विशाल एवं जटिल है, जिसका एक साथ अध्ययन करना कठिन है, इसलिए इसका अध्ययन आसान बनाने के लिए इसे व्यापक रूप से दो आधारभूत श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।

  • स्थलीय पारितंत्र (Terrestrial Ecosystem) : यह भूमि पर पाया जाता है, उदाहरण,वन, घासभूमियां, मरूस्थल ।
  • जलीय पारितंत्र (Aquatic Ecosystem) : यह जल निकायों में पाया जाता है, उदाहरण. तालाब, झील, नदी (अलवण जल), जनमन्न भूमि, मु, मुख (लवणजल)। इसी प्रकार, मानव हस्तक्षेप के संदर्भ में पारितंत्र दो प्रकार के होते हैं:
    • प्राकृतिक पारितंत्र (Natural ecosystem) यह मानवीय सहायता या हस्तक्षेप केबिना प्रकृति में विकसित होता है उदाहरण वन, समुद्री पारितंत्र
    • मानवोद्भूत पारितंत्र या मानव-निर्मित पारितंत्र इसका निर्माण एवं रखरखाव मनुष्यों द्वारा किया जाता है। उदाहरण फसलों के खेत (शस्य भूमि), बाग, जलजीवशाला इत्यादि । कृषि पारितंत्र या कृषि, सबसे बड़ा मानव-निर्मित पारितंत्र है।

मानव निर्मित पारिस्थितिक तंत्र की विशेषतायें (Characteristics of Anthropogenic Ecosystem) :

  • इसमें स्व-नियमनकारी क्रियाविधि नहीं पायी जाती है
  • इसमें अल्प विविधता होती है
  • इसमें सरल खाद्य श्रृंखला होती है
  • इसमें उच्च उत्पादकता होती है
  • इसमें पोषक तत्वों का अल्प चक्रण होता है

पारिस्थितिकी तंत्र के घटको का वर्णन

पारितंत्र दो पटको अर्थात अजैविक एवं जैविक से बना होता है।

  • अजैविक घटक (Abiotic Components) :किसी पारितंत्र में पाए जाने वाले अजीवित कारक या भौगोलिक पर्यावरणीय कारक, अजैव घटकों का निर्माण करते हैं। मुख्य रूप से तीन प्रकार के घटक है। जलवायविक, मृदीय तथा स्थलाकृति घटक
  • जैविक घटक (Biotic Components) : सभी जीवित जीव, अर्थात पादप, जन्तु एवं सूक्ष्मजीव, जो पर्यावरण में उपस्थित रहते हैं, ये पारितंत्र के जैविक घटक का निर्माण करते हैं। पारितंत्र में इनकी भूमिका के आधार पर इन्हें तीन मुख्य समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  1. उत्पादक (Producers) ये हरे प्रकाशसंश्लेषी पौधे होते हैं इसलिए ये स्वपोषी कहलाते हैं। स्थलीय पारितंत्र में, शाकीय व काष्ठयुक्त पादप प्रमुख उत्पादक होते हैं। जलीय पारितंत्र में, पादप प्लवक शैवाल तथा प्लवक व निमग्न तथा किनारों पर पाए जाने वाले सीमांत पादप प्रमुख उत्पादक होते हैं। उत्पादकों को परिवर्तकों या ट्रांसड्यूसर (ऊर्जा स्वरूप परिवर्तक) के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि वे सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं जो शर्करा आबंधों में सचित होती है।
  2. उपभोक्ता (Consumers): ये परपोषी कहलाते हैं जो निम्न प्रकार के होते हैं:
    • प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers) या प्रथम क्रम के उपभोक्ताः ये जन्तु, सीधे उपभोक्ताओं को खाते हैं। ये शाकाहारी या कुंजी इण्डस्ट्री जन्तु भी कहलाते हैं। (पादप पदार्थ को जन्तु पदार्थ में परिवर्तित करते हैं)।स्थलीय पारितंत्र (Terrestrial ecosystem) शलभ, गाय और हिरन सामान्य शाकाहारी हैं। जलीय पारितंत्र (Aquatic ecosystem) मोलस्का, टैडपोल और मच्छरों के लार्वा, सामान्य शाकाहारी हैं।
    • द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers) या द्वितीय क्रम के उपभोक्ता या प्राथमिक मांसाहारी ये वे जन्तु है जो शाकाहारियों को खाते हैं। स्थलीय पारितंत्र (Terrestrial ecosystem): टोड, मकड़ियां, छिपकलिया, शतपदी तथा कीटभक्षी पक्षी।जलीय पारितंत्र (Aquatic ecosystem) हाइड्रा, मेंढक तथा कुछ प्रकार की मछलियां ।
    • तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary Consumers) या तृतीय क्रम के उपभोक्ता या द्वितीयक मांसाहारी ये मांसाहारी, द्वितीयक उपभोक्ताओं को खाते हैं जैसे कि बड़ी मछलियां (जलीय पारितंत्र ) सॉप (स्थलीय पारितत्र) । चतुर्थक या चतुर्थ क्रम के उपभोक्ता भी हो सकते हैं जो द्वितीयक मांसाहारियों का शिकार करते हैं।
    • सर्वोच्च मांसाहारी (Top Carnivores): ऐसे मासाहारी, जो अन्य जीवों द्वारा नहीं खाए जाते, वे सर्वोच्च मांसाहारी कहलाते हैं। ये प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक मांसाहारी समूहों से संबंधित हो सकते हैं, उदाहरण चीता, शेर, बाघ एवं बाज / मोर।
  3. अपघटक (Decomposers) ये मृतोपजीवी सूक्ष्मजीव होते हैं ये जैविक समुदाय तथा पर्यावरण के मध्य सामग्रियों का चक्रीय विनिमय करते हैं। इस तरह से ये किसी पारितंत्र के अत्यन्त अनिवार्य घटक है। ये अपचायक भी कहलाते हैं क्योंकि ये भूत जीवों को अपचायित करने में सक्षम होते हैं। कवक, जीवाणुओं तथा कशाभिकाओं के रूप में से तालाब की तली में प्रचुरता से पाए जाते हैं। अपघटन में निम्नलिखित परिवर्तन सम्मिलित होते हैं.

पारितंत्र में अपघटकों के प्रकार्य (Functions of decomposers in ecosystem) :

  • ये प्राकृतिक अपमार्जक होते हैं क्योंकि ये पृथ्वी पर कार्बनिक अवशेषों को अपचायित करते हैं।
  • ये स्थनिजों से मृदा का पुनर्भरण करते हुए उसे प्राकृतिक अवस्था में बनाए रखते हैं जो पादपों की वृद्धि के लिए और इस तरह पारितंत्र बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।

कुछ कार्यकर्ताओं को किसी पारितंत्र के जैविक घटकों में से सजीवों की कुछ अन्य श्रेणियों के रूप में विभेदीकृत किया जा सकता है। ये अपमार्जक, अपरवाहारी, तथा परजीवी होते हैं। परजीवी विविध समूहों से संबंधित होते हैं, उदाहरण जीवाणु, कबक, प्रोटोजोआ, काँडे इत्यादि। अपरवाहारी ये जन्तु होते हैं जो अपरद से आहार प्राप्त करते हैं उदाहरण मृदा चिंचड़ी, केंचुए इत्यादि। ये मृत शयों के त्वरित निस्तारण में सहायक होते हैं। अपमार्जक ऐसे जन्तु होते हैं जो मृत पा पायल जन्तुओं से आहार प्राप्त करते हैं और वे पृथ्वी पर से कार्बनिक कचरे को साफ करते हैं उदाहरण कैरियन बीटल्स, मराबोऊ स्टार्क, कौवे और गिद्ध (पूर्णकालिक अपमार्जक)।

पारितंत्र संरचना (ECOSYSTEM STRUCTURE))

जैविक तथा अजैविक घटकों की अन्योन्यक्रिया के फलस्वरूप एक भौतिक संरचना बनती है, जो प्रत्येक प्रकार के पारितंय हेतु विशिष्ट प्रकार की होती है। महत्वपूर्ण संरचनात्मक विशेषताओं में निम्न शामिल हैं

  1. प्रजातियों का संघटन (Species Composition) : यह किसी पारितंत्र में पादपों एवं जन्तु प्रजातियों की पहचान व संख्या होती है। उदाहरण के लिए, कृष्णकटिबंधीय पने वर्षावनों में जैव प्रजातियों की आश्चर्यजनक रूप से उच्च संख्या पाई जाती है। दूसरी ओर, मरुस्थलीय पारितंत्र में वनस्पत्तियां विरल होती हैं।
  2. स्तरविन्यास (Stratification) : यह विभिन्न स्तरों वाली विभिन्न प्रजातियों का ऊर्ध्वं वितरण होता है। यह समुदायों के सदस्यों के स्थानिक विन्यास में पहचानी जाने वाली संरचना होती है। उदाहरण के लिए, किसी वन में निम्न ऊर्ध्व उपभाग उपस्थित होते हैं:
    • सर्वोपरि स्तरवृक्
    • द्वितीयक स्तर आहिया
    • निचला स्तर – घास और जड़ी-बूटियां

पारितंत्र – कार्य (ECOSYSTEM FUNCTION)

पारितंत्र में अपना अस्तित्व बनाए रखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। यह संरचनात्मक घटकों द्वारा संपन्न किए जाने वाले विविध कार्यों (अस्तित्व सुनिश्चित रखने हेतु किए जाने वाले क्रियाकलापों) के द्वारा संभव होता है। पारितंत्र के मुख्य कार्यात्मक पहलू निम्न है

  • उत्पादकता
  • अपघटन
  • ऊर्जा प्रवाह
  • पोषण चक्रण

(I) उत्पादकता (Productivity)

यह जैवमात्रा उत्पादन की दर है। पारितंत्र में दो प्रकार की उत्पादकता होती है प्राथमिक तथा द्वितीयक उत्पादकता ।

  • सर्वाधिक उत्पादक पारिस्थितिक तंत्र कोरल रीफ, ऊष्णकटिबन्धीय वर्षा वन, गन्ने का खेत हैं।
  • न्यूनतम उत्पादक पारिस्थितिक Catch मरुस्थल तथा गहरा समुद्र
  1. प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity) : यह वह दर है जिस दर पर जैवमात्रा या कार्बनिक पदार्थ का उत्पादन किसी समयअवधि के दौरान प्रति इकाई क्षेत्र में पादपों या उत्पादकों द्वारा प्रकाशसंश्लेषण के दौरान किया जाता है इसका आशय उस दर से है जिस दर पर, प्रकाशसंश्लेषण द्वारा ऊर्जा समृद्ध कार्बनिक यौगिकों के संश्लेषण हेतु उत्पादक द्वारा सूर्य का प्रकाश ग्रहण किया जाता है।

विविध पारितंत्रों की उत्पादकता की तुलना करने के लिए इसे भार के संदर्भ में (gm m-2)yr द्वारा या ऊर्जा के सं में (Kcalmyr-1 द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसे आगे दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

(a) सकल प्राथमिक उत्पादकता (Gross Primary Productivity) (GPP) : यह प्रति इकाई समय एवं क्षेत्रफ प्रकाशसंश्लेषण के दौरान उत्पादकों द्वारा कार्बनिक पदार्थ के उत्पादन या संश्लेषण की दर होती है। ऊर्जा ग्र करने की प्रक्रिया, हरित ऊतकों में प्रचालित होती है, इसके अतिरिक्त अन्य ऊतक भी इस ऊर्जा का श्वसन उपभोग कर लेते हैं। अतः GPP की एक बड़ी मात्रा का उपयोग पादपों द्वारा स्वयं ही कर लिया जाता है।

(b) वास्तविक या नेट प्राथमिक उत्पादकता (Net Primary Productivity) (NPP) : Iron सकल प्राथमिक उत्पादक में से श्वसन हानि (R) को घटाकर प्राप्त किया जाता है। अतः आप कह सकते हैं कि यह वह दर होती है। दर पर प्रति इकाई समय और क्षेत्र में उत्पादक, श्वसन में उपयोग किए जाने के अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थ निर्माण या संचय करते हैं।

NPP = GPP – R

वास्तविक या नेट प्राथमिक उत्पादकता, परपोषियों अर्थात शाकाहारियों एवं अपघटकों दोनों के द्वारा उपभोग जाने हेतु उपलब्ध जैवमात्रा होती है।

उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting primary productivity)

नीचे दिए अनेक तथा अजैविक कारक, प्राथमिक उत्पादकता के परिमाण को प्रभावित करते हैं।

  • उत्पादकों की प्रकाशसंश्लेषण की क्षमता, जिसका आशय सकल प्राथमिक उत्पादकता उत्पन्न करने के लिए अ सौर विकिरण को उपयोग करने की सामर्थ्य से है।
  • उपलब्ध सौर विकिरण
  • तापमान
  • मृदा की नमी
  • पोषकों की उपलब्धता


जैवमंडल की उत्पादकता (Productivity of biosphere) : समग्र जैवमंडल की वार्षिक NPP, लगभग 170 बिलियन टन (शुष्क भार) कार्बनिक पदार्थ है। हालांकि महासागर, पृथ्वी की सतह के 70% भाग तक फैले हुए हैं, फिर भी महासागरों की उत्पादकता केवल 55 बिलियन टन है जबकि स्थलीय पारितंत्र की उत्पादकता 115 बिलियन टन है। महासागरों की उत्पादकता कम होने के कारण (Reasons for the low productivity of oceans) गहरे सामुद्रिक वासस्थलों में उत्पादकता सीमित करने वाले दो मुख्य कारक होते हैं:

(i) प्रकाश गहराई के साथ यह घटता जाता है। (ii) पोषक नाइट्रोजन, सामुद्रिक पारितंत्र की उत्पादकता सीमित करने वाला प्रमुख पोषक है।

2. द्वितीयक उत्पादकता (Secondary productivity) यह उपभोक्ताओं द्वारा नए कार्बनिक तत्व (पदार्थ) बनाए जाने की दर होती है।

3. समुदाय उत्पादकता (Community productivity): यह प्रति इकाई क्षेत्रफल व समय में समुदाय द्वारा वास्तविक संश्लेषण व कार्बनिक पदार्थ के निर्माण की दर है।

  1. पारिस्थितिक दक्षता / पोषी स्तर दक्षता (Ecological efficiency/Trophic level efficiency): निम्न पोषी स्तर पर उपलब्ध भोज्य पदार्थ की ऊर्जा को उच्च पोषी स्तर द्वारा जैवभार में परिवर्तित की गयी ऊर्जा की प्रतिशतता पारिस्थितिक दक्षता कहलाती है।

(4) प्रकाशसंश्लेषी दक्षता = सकल प्राथमिक उत्पादकता/ आपतित कुल सौर विकिरण × 100

(5) वास्तविक उत्पादन दक्षता = वास्तविक प्राथमिक उत्पादकता / सकल प्राथमिक उत्पादकता x100

अपघटन (Decomposition)

इसके अंतर्गत अपघटकों द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थों को अकार्बनिक कच्ची सामग्रियों जैसे कि कार्बन डाइऑक्साइड, जल, तथा विविध पोषकों में खडित किया जाता है। स्थलीय वासस्थलों में मृदा की ऊपरी परत तथा जल निकायों में तली, अपघटन के प्रमुख स्थल होते हैं। मृत अवशेष जैसे कि पत्तियां, छाल, पुष्प तथा जन्तुओं के मृत अवशेष व मल आदि अपरव का निर्माण करते हैं जो अपघटन हेतु कच्ची सामग्री का कार्य करता है।

(i) अपघटन प्रक्रियाएं या प्रक्रम (Decomposition Processes): अपघटन की प्रक्रिया में तीन महत्वपूर्ण चरण होते हैं- खंडन, निक्षालन तथा अपचयन। ये प्रक्रियाएं साथ-साथ घटित होती है।

(A) अपरदों का खंडन (Fragmentation of Detritus); छोटे अकशेरुकी जन्तु जो अपरदाहारी कहलाते हैं, वे अपरद से आहार प्राप्त करते हैं उदाहरण केचुए मृदा चिंचड़ी, महीन कणों में परिवर्तित हो जाता है जो बड़ा पृष्ठ क्षेत्र होता है जिन पर एन्जाइम आसानी से कार्य कर सकते हैं।

(B) निक्षालन (Leaching): स्वहित व अपघटित अपरद में उपस्थित जल में विलेय भाग (उदाहरण शर्करा, अकार्बनिक पोषक) जल में रिसकर भूमि मृदा संस्तर में प्रवेश कर जाते हैं और अनुपलब्ध लवणों के रूप में निक्षेपित होते हैं।

(C) अपचय (Catabolism): मृतोपजीवी जीवाणु व कवक खंडित अपद पर पाचक एंजाइम सावित करते हैं। जो जटिल कार्बनिक यौगिकों को सरल यौगिकों में विखंडित कर देते हैं। ये “प्रकृति के अपमार्जकों का कार्य करते हैं। अपचयन किया या विभिन्न जटिल पदार्थों को तोड़े जाने की दर भिन्न होती है। यह अंतरयुक्त विखंडन, क्रमश: ह्यूमस भवन (ह्यूमस बनना) तथा खनिजी भवन या खनिजीकरण की प्रक्रिया द्वारा दो पदार्थ निर्मित करता है: ह्यूमस तथा अकार्बनिक पोषक

(a) ह्यूमस बनना (Humification) इस प्रक्रिया में अपरद का अपघटन होने पर ह्यूमस बनता है। ह्यूमस एक काले रंग का रखाहीन, कम या अधिक अपघटित कार्बनिक पदार्थ होता है जो सेल्युलोज, लिगनिन, टेनिन, रेजिन इत्यादि से समबद्ध होता है और सूक्ष्मजीव किया के प्रति उच्च प्रतिरोधी होता है। इसका अपघटन अत्यन्त मद दर से होता है। ह्यूमस कुछ अम्लीय कोलाइडी होता है जो पोषको के लिए भंडार का कार्य करता है।

(b) खनिजीकरण (Mineralisation) इसके अंतर्गत अपघटन की प्रक्रिया के दौरान कार्बनिक पदार्थ या ह्यूमस से अकार्बनिक पदार्थ (उदाहरण कार्बन डाइऑक्साइड, जल, खनिज) मुक्त होते हैं। इनके साथ सरल और विलेय कार्बनिक पदार्थ बनते हैं जब मृतोपजीवी सूक्ष्मजीवों द्वारा कार्बनिक पदार्थ पर पाचक एंजाइम डाले जाते हैं।

(ii) अपघटन को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Decomposition): अपरद के अपघटन की दर, अपरद की रासायनिक प्रकृति तथा अनेक जलवायविक कारकों द्वारा नियंत्रित होती है, जो नीचे दिए गए हैं:

(a) अपरद की रासायनिक प्रकृति (Chemical nature of detritus)- अपरद में लिगनिन, काइटिन, टैनिन (फीनॉलिक्स) तथा सेल्युलोज होने पर इसका अपघटन मंद गति से होता है। अपरद में नाइट्रोजनी यौगिकों (जैसे कि प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्ल) तथा जल में विलेय रक्षित कार्बोहाइड्रेटों या शर्कराओं की मात्रा अधिक होने पर इसका अपघटन तेज गति से होता है।

(b) तापमान (Temperature)- 25° से. से अधिक तापमान पर अच्छी नमी तथा वायु वाली मृदा में अपघटक अधिक सक्रिय होते हैं। आर्द्र ऊष्णकटिबंधीय प्रदेशों में, अपरद का सम्पूर्ण अपघटन होने में 3-4 महीने से अधिक समय नहीं लगता। हालांकि मृदा की निम्न तापमान वाली दशाओं में (10°C से कम) नमी और वायु पर्याप्त मात्रा में उपस्थित होने पर अपघटन की दर बहुत कम होती है।

(c) नमी (Moisture)- इष्टतम नमी, अपरद के अपेक्षाकृत तीव्र अपघटन में सहायक होती है। लम्बे समय तक शुष्कता वाले क्षेत्रों, जैसे कि ऊष्णकटिबंधीय मरूस्थलों में नमी कम हो जाने के कारण अपघटन की दर मंद हो जाती है जहां अन्यथा तापमान काफी अधिक रहता है। अत्यधिक नमी भी अपघटन को बाधित करती है।तापमान तथा मृदा की नमी सबसे महत्वपूर्ण जलवायविक कारक हैं जो मृदा सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों पर अपने प्रभावों के माध्यम से अपघटन को विनियमित करते हैं।

(d) वातन (Aeration)- अपघटकों तथा अपरदाहारियों की गतिविधियों के लिए इसकी आवश्यकता होती है। वायुजीवन में कमी, अपघटन की प्रक्रिया को मंद कर देती है।

अतः इस चर्चा से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऊष्ण एवं आर्ट वातावरण, अपघटन के अनुकूल होता है जबकि कम तापमान तथा अवायुजीवन, अपरदन की गति को धीमा करते हैं, जिससे कार्बनिक पदार्थों का भंडार जमा हो जाता है।

(ii) पोषक निश्चलीभवन (Nutrient Immobilisation): जीवित सूक्ष्मजीवों में पोषक तत्वों का समावेश होने की परिघटना पोषक निश्चलीभवन कहलाती है। सूक्ष्मजीवों की मृत्यु के बाद अचल पोषक विलेयीकरण के लिए पुनः उपलब्ध हो जाते हैं। निश्चलीभवन पोषक तत्वों को पारिस्थितिक तंत्र से मिट जाने तथा नष्ट होने से बचाता है।

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