भाग्य बड़ा और साहस की कहानी
एक बार की बात है – भाग्य और साहस में अचानक झगड़ा उठ खड़ा हुआ ।
भाग्य ने कहा ” सबसे बड़ा मैं हूँ । मैं जब जिसे चाहूँ राजा से रंक बना दूँ और रंक से राजा बना दूँ । ”
साहस ने कहा “‘ छोड़ो – छोड़ो , सबसे बड़ा तो मैं हूँ । जिस आदमी में साहस न हो , वह कुछ कर ही नहीं सकता । जिसमें साहस हो , वही सुखी होता है । इसीलिए मैं तुमसे बड़ा हूँ । “
” चलो – चलो ” ! भाग्य ने मुँह बिदकाकर कहा- “ कोई कितना ही साहसी क्यों न हो , यदि उसके भाग्य में सुख नहीं है तो उसे साहस के बल पर सुख कदापि नहीं मिल सकता । “
” किसी के भाग्य में कितना भी सुख लिखा हो , लेकिन यदि वह साहसी नहीं है तो वह कभी सुखी नहीं हो सकता । ” उदाहरण देते हुए साहस ने कहा , “ मान लो किसी के भाग्य में लिखा है कि उसे जंगल में अपार धन मिलेगा । अब अगर उस आदमी में साहस होगा , तभी तो वह जंगल में जाएगा । इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि साहस भाग्य से बड़ा है …।
” होते – होते यह बहस लंबी होती चली गई । भाग्य अपने को तरह – तरह की मिसालें देकर बड़ा बताता और साहस उसकी दलीलों को काटकर अपने बड़ा होने की बात करता । लेकिन इस तरह एक – दूसरे के कहने भर से तो कोई बड़ा हो नहीं जाता । आखिर दोनों के बीच यही तय हुआ कि इस झगड़े को निपटाने के लिए किसी तीसरे से इसका फैसला कराया जाए ; जिसे वह बड़ा कह दे , उसी को बड़ा मान लिया जाए । ” हाँ , यह ठीक है । ” भाग्य ने कहा , “ चलो , हम किसी आदमी से ही इस बात का फैसला कराएँ । ”
किससे कराया जाए ? यह दोनों के लिए ही अब समस्या थी । दोनों कुछ देर सोचते रहे । बड़ी देर के बाद साहस ने ही सुझाया , ” पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य बड़े ही प्रतापी राजा माने जाते हैं । हम लोगों को उन्हीं के पास चलना चाहिए । ”
” चलो , यह भी ठीक है । ” भाग्य ने कहा , ” राजा विक्रमादित्य वास्तव में सत्यवादी हैं , न्यायप्रिय भी हैं । वह जो फैसला करेंगे ; ठीक ही करेंगे । ” और दोनों पहुँच गए राजा विक्रमादित्य के दरबार में ।
राजा विक्रमादित्य सिंहासन पर बैठे थे । राज – सभा में सभी आसनों पर बड़े – बड़े पंडित – ज्ञानी मौजूद थे । धर्म – चर्चा चल रही थी । कोई वेदों की बातें कर रहा था तो कोई पुराणों की । सोने के सिंहासन पर बैठे राजा विक्रमादित्य ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे । उसी समय पहुँच गए भाग्य और साहस ।
राजा विक्रमादित्य ने उठकर बड़े आदर से दोनों का स्वागत किया । उनकी आरती उतारी , स्तुति की । उनके लिए अपने सिंहासन से भी ऊँचे दो जड़ाऊ सिंहासन मँगवाए । भाग्य और साहस जब सिंहासनों पर बैठ गए तब राजा विक्रमादित्य ने हाथ जोड़कर कहा , “ आप लोगों के दर्शन पाकर मैं सचमुच धन्य हो गया । कहिए , आप दोनों की मैं क्या सेवा करूँ ? ”
भाग्य ने प्रसन्न होकर कहा , ” महाराज , आपके स्वागत – सत्कार से हम बड़े प्रसन्न हैं । आप केवल एक बात का फैसला कर दें , बस …। ”
‘ आज्ञा कीजिए । ” आप हमें यह बताने का कष्ट करें कि हममें से कौन बड़ा है ? ” ” हाँ महाराज ! ” साहस ने कहा , ” डरना मत । जो उचित हो , वही कहना ।
” राजा विक्रमादित्य ने दरबार में बैठे ज्ञानी पंडितों की ओर देखा । पंडितों ने तुरंत राजा का मतलब समझ लिया । वे वेद , पुराण और दूसरे बड़े – बड़े ग्रंथ खोल – खोलक देखने लगे , लेकिन एक एक पन्ना देख डालने पर भी वे लोग यह पता नहीं लगा पाए कि भाग्य बड़ा या साहस ।
अब तो राजा विक्रमादित्य बड़े चक्कर में पड़ गए । आखिर उनसे कहें तो क्या कहें ? भाग्य से उनके पास सब कुछ था – राज – पाट , हाथी – घोड़े , सेना- सिपाही और यश – कीर्ति । यह सब कुछ भाग्य के कारण ही तो था , लेकिन राजा विक्रमादित्य आखिर राजा थे , वीर थे । एक बार तो यमराज से भी जूझ पड़ने का उनमें साहस था । फिर वह साहस को कैसे छोटा कहें ?
उधर भाग्य था कि जल्दी मचाए हुए था , ‘ बोलो , राजा ! हमारा फैसला कर दो , फिर हम चलें । ”
” हाँ , राजा ! ” साहस ने भी हौसला बढ़ाते हुए कहा , ” डरते क्यों हो ? जो बड़ा हो उसे बड़ा कह दो और जो छोटा हो उसे छोटा कह दो । बोलो , जल्दी बोलो !
” राजा विक्रमादित्य ने हाथ जोड़कर कहा , पर मुझे सोचने के लिए थोड़ा – सा समय चाहिए । ” आप दोनों के झगड़े का मैं फैसला तो कर सकता हूँ , “ कितना समय ? ” भाग्य और साहस ने एक – साथ पूछा ।
राजा ने सोचकर कहा , ” मुझे छः महीनों का समय दीजिए । ठीक छ : महीने बाद आप लोग आ जाइए , तब मैं अपना फैसला सुना दूँगा । ”
” अच्छी बात है । अब हम छ : महीने के बाद ही आएँगे , पर उस दिन भी हमें टाल मत देना । ” “ नहीं – नहीं , उस दिन जरूर फैसला सुना दूँगा ।
” भाग्य और साहस उठकर चले गए । राजा विक्रमादित्य सोचने लगे – यहाँ राजमहल में तो हर प्रकार का मुझे सुख हैं । किसी भी चीज़ की इच्छा करते ही तुरंत मिल जाती है । इसी तरह रक्षा करने के लिए हजारों सिपाही – सेनापति हैं । यहाँ रहकर न तो भाग्य की परीक्षा हो पाएगी और न साहस की । इसलिए कुछ दिन इस नगर से बाहर निकलकर मुझे घूमना चाहिए ; तभी पता चल पाएगा कि भाग्य बड़ा है या साहस !
बस , उधर भाग्य और साहस दरबार से निकले और इधर राजा विक्रमादित्य भी राज – पाट मंत्रियों को सौंपकर अकेले ही निकल पड़े ; यह सोचते हुए कि देखें , अब भाग्य साथ देता है या साहस !
चलते – चलते राजा विक्रमादित्य अपने राज्य से बाहर निकल गए और दूसरे राजा के नगर में जा पहुँचे । वहाँ वह एक सेठ के दरवाज़े पर पहुँचकर अचानक रुक गए । सेठ भी वहीं खड़ा था । उसने देखा कि एक अच्छा भला तंदुरुस्त आदमी अचानक उसके दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया है उसके चेहरे पर तेज दमक रहा है और कमर में तलवार बँधी हुई है । लगता तो ऐसे है जैसे कहीं का राजा हो । पराए देश का सेठ भला राजा विक्रमादित्य को कैसे पहचानता ? सो उसने आगे बढ़कर पूछा , “ क्या बात है , भाई ? यहाँ कैसे खड़े हो ? “
राजा विक्रमादित्य ने कहा , ” मैं नौकरी करना चाहता हूँ । आपके पहनावे से मुझे ऐसा लगा जैसे आप यहाँ के बहुत बड़े सेठ हैं , मुझे भी कोई नौकरी दे सकते हैं । ”
” नौकरी ? ” सेठ ने ताज्जुब से पूछा , ” भाई , तुम तो खुद ही किसी राजा – महाराजा से कम नहीं लगते हो , भला तुम क्या नौकरी करोगे ? कहाँ से आ रहे हो ? ”
“ राजा विक्रमादित्य के नगर से । ” राजा विक्रमादित्य ने बात बनाते हुए कहा , ” पहले उनकी सेना में ही सिपाही था । वहाँ के काम से मन ऊब गया , सो घूमने निकल पड़ा । क्या आपके यहाँ मुझे कोई काम • मिल सकता है ? ”
‘ क्या काम करोगे ? ”
” जो काम कोई नहीं कर सकेगा , वह काम मैं करूँगा । ” ‘ तनख्वाह कितनी लोगे ? ” ‘ एक लाख रुपये रोज । ” ” ‘ लाख रुपये रोज ? ‘ ‘ सेठ ताज्जुब से बोल उठा ,
” राजा विक्रमादित्य के यहाँ तो तुम केवल एक सिपाही ही थे । इतनी बड़ी तनख्वाह तुम्हें कौन देगा ? यह तो बहुत है , भाई ! ”
‘ लेकिन मैं इतने से कम पर काम नहीं करूँगा । ” राजा विक्रमादित्य ने कहा , ” वहाँ मेरी किसी ने कदर नहीं की , इसीलिए तो मैं वहाँ से छोड़कर आया हूँ , और फिर सोचो जरा , काम भी तो मैं ऐसा करता हूँ जिसे दूसरा कोई न कर सके !
“ हूँ ! ” सेठ सोचता रहा … सोचता रहा … एकाएक बोल पड़ा , ” ठीक है , मुझे मंजूर है । मैं तुम्हें एक लाख रुपये रोज दूंगा । मेरे यहाँ तुम्हारी नौकरी पक्की हो गई ।
” बस , राजा विक्रमादित्य उसी दिन से सेठ के यहाँ नौकर हो गया । काम – धाम के नाम पर तो उसे कुछ करना नहीं होता था – दिन – भर बस बैठा रहता और साँझ को सेठ से एक लाख रुपये गिनवा लेता । राजा विक्रमादित्य रोज सेठ से एक लाख रुपये लेकर आधा तो गरीब दुखियों को दान कर देता । आधे का आधा करके मंदिर में जाकर देवी – देवताओं को चढ़ा देता । फिर जो आधा बचता , उसमें से आधा बुरे समय के लिए संभालकर रख लेता और शेष रुपयों से ठाठ से अपना खर्च चलाया करता ।
इसी तरह दिन बीतते गए । एक बार की बात है कि सेठ को दूसरे देशों में व्यापार करने के लिए बाहर निकलना पड़ा । उसने बड़े – बड़े जहाजों में खूब माल खरीदकर लदवाया और समुद्र के रास्ते से किसी दूसरे देश की ओर चल पड़ा । चलते समय उसने विक्रमादित्य को भी अपने साथ ले लिया ।
दुर्भाग्य की बात , जहाज बीच समुद्र में पहुँचा ही था कि एकाएक अटक गया । मल्लाहों ने बड़ हिम्मत की , बड़ा जोर लगाया , पर जहाज न अंगुल भर आगे सरका , न पीछे खिसेका । अब तो सेठ भी बहुत घबराया । उसने राजा विक्रमादित्य की और देखकर कहा ” भाई , मैं तुम्हें रोज एक लाख रुपये तनख्वा के देता हूँ । तुम्हीं ने तो कहा था कि , जो काम कोई नहीं कर सकेगा , उसे तुम करोगे । जरा देखो तो , समुद्र के बीच में आकर यह जहाज न जाने कैसे एकाएक अटक गया है और कोई भी इसे हिलाने तक में समर्थ नहीं है । अब तुम्हीं इसे किसी तरह यहाँ से आगे खिसकाओ ।
” हुक्म पाते ही राजा विक्रमादित्य तैयार हो गया । उसने पानी में उतरकर अपनी पूरी ताकत से जहाज को जोर से धक्का मारा । धक्का इतना तेज लगा था कि पूरा जहाज हिलकर अपनी जगह से न केवल सरक गया बल्कि दूर निकल गया । राजा जहाँ का तहाँ रह गया । सेठ जहाज लेकर चला गया । राजा ने सेठ की काफी प्रतीक्षा की , किन्तु जब सेठ वापस नहीं लौटा तो राजा विक्रमादित्य अपने नगर में जा पहुँचा ।
वह अपने दरबार में आकर राजसिंहासन पर बैठा ही था कि भाग्य और साहस भी आ धमके । भाग्य ने छूटते ही कहा , “ राजन् , आज छ : महीने पूरे हो गए । अब हमारा फैसला कर दो । ” साहस ने भी कहा , ” हाँ राजन् , अब तुम हमें बता ही दो कि साहस बड़ा है या भाग्य ? ”
“ न कोई बड़ा है , न कोई छोटा … ” राजा विक्रमादित्य ने कहा , ” दोनों बराबर हैं । ” भाग्य और साहस चौंक पड़े ,
अरे ! ” यह कैसे हो सकता है , राजन् । ” राजा विक्रमादित्य ने अपनी पूरी कथा सुनाकर फैसला देते हुए कहा , ” भाग्य देवता ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की थी । मुझे सेठ ने भाग्य के कारण ही प्रतिदिन एक लाख वेतन पर नौकरी दी किन्तु जब जहाज बीच समुद्र में पहुँचा और अटक गया तथा मल्लाहों के धक्का देने पर भी नहीं चला ; तब मैंने साहस के साथ धक्का देने का प्रयास किया मुझे सफलता मिली । ” इसीलिए मैं कहता हूँ कि – अगर साहस न हो तो भाग्य भी साथ नहीं देता और भाग्य न हो तो साहस बेकार है । आप दोनों ही समान हैं । राजा विक्रमादित्य का फैसला भाग्य ने भी मान लिया और साहस ने भी । फिर उन दोनों में कभी झगड़ा नहीं हुआ । वे अब बड़े प्रेम से एक – दूसरे का साथ देते हैं ।