भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकार क्या है?
इसे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है इसका वर्णन संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 में मिलता है संविधान के भाग 3 को भारत का अधिकार प्राप्त पत्र कहा जाता है इसे मूल अधिकारों का जन्मदाता भी कहा जाता है मौलिक अधिकार में संशोधन हो सकता है एवं राष्ट्रीय आपात के दौरान अनुच्छेद 352 जीवन एवं व्यक्तिगत जनता के अधिकारों को छोड़कर अन्य मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता हैं
मुल सम्मिान में सात मौलिक अधिकार थे, लेकिन संविधान संशोधन (1978 ई.) के द्वारा सम्पत्ति का अधिकार (अनुच्छेद-एवं 19 क)को मौलिक अधिकार की सूची से हटाकर इसे संविधान के अनुच्छेद-300(a) के अन्तर्गत कानूनी अधिकार के रूप में रखा गया है।श
महत्वपूर्ण सूचना :1931 में कराची अधिवेशन (अध्यक सरदार बलराम भाई पटेल) में कांग्रेस ने घोषणा-पत्र में मूल अधिकारों की मांग की। मूल अधिकार का प्रारुप जवाहरलाल नेहरू ने बनाया था।
6 मौलिक अधिकार कौन से हैं?
समता या समानता का अधिकार
अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता) :-इसका अर्थ यह है कि राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एकसमान कानून बनायेना तथा उनप परएकसमान लागू करेगा।
अनुद-15(धर्म, नस्ल ,जाति, लिग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) : राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग काम एवं जन्म स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जायेगा।
अनुष्छेद-16 (लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता) :राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित वषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी।अपवार-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग।
अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का अन्त) : अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
अनुच्छेद-18 (उपाधियों का अन्त) सेना था विधा संबंधी सम्मान के सिवाए अन्य कोई भी उपाधि राज्य द्वारा प्रदान नहीं की जायेगी।भारत का कोई नागरिक किसी अन्य देश से बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है।
नोट: भारत सरकार द्वारा भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्मश्री एवं सेना द्वारा परमवीर याक, महावीर थक, वीर थक आदि पुरस्कार अनुच्छेद-18 के तहत ही दिये जाते हैं।
स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद-19: मूल संविधान में सात तरह की स्वतंत्रता का उल्लेख था. अब सिर्फ छह हैं (अनुच्छेद 19(f) सम्पत्ति का अधिकार, 44य/ संविधान संशोधन 1978 के द्वारा हटा दिया गया)।
अनुच्छेद-20 (अपराधों के लिए दोष सिद्धि के संबंध में संरक्षण):
इसके तहत तीन प्रकार की स्वतंत्रता का वर्णन है-
1. किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए सिर्फ एक बार सजा मिलेगी।
2. अपराध करने के समय जो कानून है उसी के तहत सजा मिलेगी न कि पहले और बाद में बनने वाले कानून के तहत ।
3.किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध न्यायालय में गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 21 प्राण एवं दैहिक की स्वतंत्रता का संरक्षण: किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
नोट अनुच्छेदम के तहत प्रत्येक सरकार का दायित्व बनता है कि वह अपने नागरिकों को स्वस्थ एवं स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध कराए।इसके लिए भारत सरकार ने संसद से राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 पारित कराया। अक्टूबर 2010 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की स्थापना की गई। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की मुख्यपीठ नई दिल्ली में है जबकि चार अन्य पीठे भोपाल, पुणे, कोलकाता एवं चेन्नई में है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण देश में पर्यावरण से संबंधित मामलों के लिए उत्तरदायी है।
अनुच्छेद-21 (क) राज्य 6 से 14 वर्ष के आयु के समस्त बच्चों को ऐसे ढंग से जैसा कि राज्य, विधि द्वारा अवधारित करें, निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करेगा। (86वा संशोधन-2002)
अनुच्छेद-22 (कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध में सरक्षना) अगर किसी भी व्यक्ति को मनमाने उग से हिरासत में ले लिया गया
हो, तो उसे तीन प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गई:-
1.हिरासतमें लेने का कारण बताना होगा,
2.24 घंटे के अंदर (आने-जाने के समय को मोड़कर) उसे दहाधिकारी के समक्ष पेश किया जायेगा,
3.उसे अपने पसंद के वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा
निवारक निरोध : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड 3.4.5तथा 6 में सबंधी प्रावधानों का उल्लेख निवारक निरोध कानून क अन्तर्गत किसी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व गिरफ्तार किया जाता है। निवारक निरोध का उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए एक देना नहीं, वरन उसे अपराध करने से रोकना है। वस्तुतः यह निवारक नरोध राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाये रखने या भारत की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकता है। जब किसी व्यक्ति को निवारक नरोध की किसी विधि के अधीन गिरफ्तार किया जाता है, तब
1. सरकार ऐसे व्यक्ति को केवल 3 महीने तक अभिरक्षा में निरूद्ध कर सकती है। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को तीन माह से अधिक समय के लिए निरुद्ध करना होता है, तो इसके लिए सलाहकार बोर्ड का प्रतिवेदन प्राप्त करना पड़ता है।
2. इस प्रकार निरुद्ध व्यक्ति को यथाशीघ्र निरोध के आधार पर सूचित किये जायेंगे, किन्तु जिन तव्यों को निरस्त करना लोकहित के विरुद्ध समझा जायेगा उन्हें प्रकट करना आवश्यक नहीं है।
3. निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र अवसर दिया जाना चाहिए।
निवारक निरोषसे संबंधित अब तक बनायी गयी विधियों
1. निवारक निरोध अधिनियम, 1950
भारत की संसद ने 26 फरवरी,1950 ई. को पहला निवारक निरोध अधिनियम पारित किया था। इसका उद्देश्य राष्ट्र विरोधी तत्वों को भारत की प्रतिरक्षा के प्रतिकूल कार्य से रोकना था। इसे 1 अप्रैल, 1951 को समाप्त हो जाना था, किन्तु समय समय पर इसका जीवनकाल बढ़ाया जाता रहा । अंततः वह 31 दिसम्बर, 1971 को समाप्त हुआ।
2. आन्तरिक सुरक्षा अवस्था अधिनियम, 1971 MISA :44वेसंवैधानिक संशोधन इसके प्रतिकूल था और इस कारण अप्रैल 1979ई में यह समाप्त हो गया।
3. विदेशी मुद्रा संरक्षण व तस्करी निरोध अधिनियम, 1974 :पहले इसमें तस्कारों के लिए नजरबंदी की अवधि 1 वर्ष थी, जिसे 13 जुलाई 1984 को एक अध्यादेश के द्वारा बढ़ाकर 2 वर्ष कर दिया गया है।
4. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, 1980 जम्मू कश्मीर . अतिरिक्त अन्य सभी राज्यों में लागू किया गया।
5. आतंकवादी एवं विध्वसकारी गतिविधियों निरोधक कानून टाडा
निवारक निरोध व्यवस्था के अन्तर्गत अबतकी कानून बने उनमें यह सबसे अधिक प्रभावी और सर्वाधिक कटोर कानून था। 23 मई, 1995 ई को इसे समाप्त कर दिया गया।
पोटो Prevention of Terrorism Ordinance 2001) –
इसे25 अक्टूबर, 2001 को लागू किया गया। पोटो’ शडा का ही एक रूप है । इसके अन्तर्गत कुल 23 आतंकवादी गुटों को प्रतिबन्धित किया गया है। आतंकवादी और आतंकवादियों से संबंधित सूचना को छिपाने वालो को भी दडित करने का प्रावधान किया गया है।पुलिस शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, किन्तु बिना आरोप पत्र के तीन माह से अधिक हिरासत में नहीं रख सकती। पोटा के अन्तर्गत गिरफ्तार व्यक्ति हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट मे अपील कर सकता है, लेकिन यह अपील भी गिरफ्तारी के तीन मह बाद ही हो सकती है। पोटो 28 मार्च, 2002 को अधिनियम बनने के बार पोटा (Prevention of Terrorism act) हो गया। 21 सितम्बर, 2004 ई. को इसको अध्यादेश के द्वारा समाप्त कर दिया गया।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
अनुच्छेद-23 (मानव के दुव्यापार और बलात् अम का प्रतिषेध) इसके द्वारा किसी व्यक्ति की खरीद-विकी, वेगारी तया इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती किया हुआ बम निषिद्ध ठहराय गया है, जिसका उल्लंघन विधि के अनुसार दंडनीय अपराध है-
नोट जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है
अनुच्छेद-24 (बालकों के नियोजन का प्रतिषेध): 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 25 (अंतःकरण की और धर्म के अवाय रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वातंत्रता) कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है और उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है।
अनुच्छेद-26 (धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता) : व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना व पोषण करने, विधि- सम्मत सम्पत्ति के अर्गन, स्वामित्व व प्रशासन का अधिकार है।
अनुष्छेद-27 : राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिए मौलिक बाध्य नहीं कर सकता है, जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गई है।
अनुच्छेद-28 : राज्य-विधि से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी। ऐसे शिक्षण संस्थान अपने विद्यार्थियों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने या किसी धर्मोपदेश को बलात् सुनने हेतु बाध्य नहीं कर सकते।
संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार
» अनुच्छेद-29 (अल्पसंख्यक पदों के हितों का संरक्षण) कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है और केवल भाषा, जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर उसे किसी भी सरकारी शैक्षिक संस्था में प्रवेश से नहीं रोका जायेगा।
नोट : वर्तमान में छः समुदायों मुस्लिम, पारसी, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं जैन को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा प्रदान किया गया है। अल्पसंख्यक समुदाय के विकास को समुचित आधार प्रदान करने के लिए 2005 में तत्कालीन केन्द्र सरकार के द्वारा प्रधानमंत्री का 15 सूत्रीय कार्यक्रम प्रारंभ किया गया।
अनुच्छेद-30 (शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार) कोई भी अल्पसंख्यक वर्गअपनी पसंद का शैक्षणिक संस्था चाला सकता है और सरकार उसे अनुदान देने में किसी भी तरत की भेदभाव नहीं करेगी।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
‘संवैधानिक उपचारों के अधिकार’ को डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान की आत्मा कहा है।
अनुच्छेद 32: इसके अंतर्गत मौलिक अधिकार को प्रवतित कराने के लिए समुचित कार्रवाइयों द्वारा उच्चतम न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस संदर्भसर्वाण न्यायालय को पाँच तरह के रिट (writ)निकालने की शक्ति प्रदान की गयी है
1.बन्दी प्रत्यक्षीकरण (habean.corpust)
2.परमादेश (mandamusl)
3.प्रतिषेध-लेख (prohibition)
4. उत्प्रेषण (Coortioraril)
5.अधिकार पृच्छा-लेख (quo warranto)
1.बन्दी-प्रत्यक्षीकरण
यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण करनेवाले अधिकारी को आदेश देता है कि यह बंदी बनाये गये व्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अन्दर उपस्थित करे, जिससे न्यायालय बंदी बनाये जाने के कारणों पर विचार कर सके।
2. परमादेशः
परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वाह नही करता है। इस प्रकार के आज्ञापत्र के आधार पर पदाधिकारी की उसके कर्तव्य का पालन करने का आदेश जारी किया जाता है।
3. प्रतिषेध-लेख
यह आज्ञापन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न न्यायालयों व अर्द्धन्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहाँ कार्रवाही न करें, क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
4. उत्प्रेषण
इसके द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे अपने पास लम्बित मुकदमों के न्याय निर्णचन के लिए उसे वरिष्ठ न्यायालय को भेजे।
5 अधिकार पृच्छा-लेख:
जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है, तो न्यायालय अधिकार पृच्छा के आदेश के द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस अधिकार से कार्य कर रहा है और जब तक वह इस बात का संतोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता है।
मौलिक अधिकार में संशोधन
1 गोकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967 ई.) के निर्णय से पूर्व दिये गये निर्णयों में यह निर्धारित किया गया था कि संविधान के किसी भी भाग में संशोधन किया जा सकता है, जिसमें अनुच्छेद 368 एवं मूल अधिकार को शामिल किया गया था।
2 सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्यवाद (1967 ई.)के निर्णय में अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से मूल अधिकारों में संशोधन पर रोक लगा दी। अर्थात् संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है।
3. 24वें संविधान संशोधन (1971 ई.) द्वारा अनुच्छेद 13 और 368 में संशोधन किया गया तथा यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 366 में दी गयी प्रक्रिया द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है।
4 .केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्यवाद के निर्णय में इस प्रकार के संशोधन को विधि मान्यता प्रदान की गयी अर्थात् गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के निर्णय को निरस्त कर दिया गया।
5.42वें संविधान संशोधन (1976 ई.) द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड 4और 5 जोड़े गये तथा यह व्यवस्था की गयी कि इस प्रकार किये गये संशोधन को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जासकता है।
6. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980 ई.) के निर्णय के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि संविधान के आधारभूत लक्षणों की रक्षा करने का अधिकार न्यायालय को है और न्यायालय इस आधार पर किसी भी संशोधन का पुनरावलोकन कर सकता है इसके द्वारा 42वें संविधान संशोधनद्वारा की गई व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया।
FAQ
मौलिक अधिकार कहाँ से लिया गया है?
संयुक्त राज्य अमेरिका
मौलिक अधिकार का अध्यक्ष कौन है?
सरदार वल्लभ भाई पटेल
संविधान सभा के अध्यक्ष कौन है?
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद