एक दिव्यांग की कहानी
सोमा और शीला बचपन से अच्छी मित्र हैं । दोनों एक ही कक्षा में पढ़ती हैं । पड़ोसी होने के नाते दोनों का अधिकांश समय साथ ही बीतता है । जिस दिन वे आपस में मिल नहीं पातीं , उस दिन उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो कोई बड़ा काम करने से छूट गया हो ।
उस दिन सोमा जैसे ही घर पहुँची , तो देखा कि कलकत्ते से मौसी और उनकी बेटी मधु आई हैं । सोमा उन्हें देखते ही खिल उठी । मौसी उसके लिए ढेर सारे खिलौने , चूड़ियाँ , माला और फ्राक लाई है । सोमा ने मधु का सामान अपने कमरे में रख लिया । उन लोगों के आने से दशहरे की छुट्टियाँ अच्छी बीतेंगी ऐसा सोचकर सोमा बड़ी प्रसन्न है ।
तीन -चार साल बाद सोमा और मधु मिली थीं । इसलिए उन लोगों की बातें थीं कि खत्म होने को ही नहीं आ रही थीं । दो – तीन दिन कैसे बीत गए ; पता ही नहीं चला । एक दिन शाम को मधु बोली – ‘ भई सोमा , मेरा तो घर बैठ – बैठे मन ऊब गया । मुझे आए तीन दिन हो गए और हम लोग कहीं गए नहीं । हमारे कलकत्ते में दुर्गा पूजा के दिनों में इतनी चहल – पहल रहती है कि हम लोग एक दिन भी घर नहीं बैठते । ‘
” मगर मधु ! कहीं घूमने जाने के लिए तो पापा को मनाना पड़ेगा । चलो आज तुम्हें अपनी सहेली के घर ले चलती हूँ । दो दिन से गए भी नहीं है उसके पास मिलोगी तो मन खुश हो जाएगा । बड़े अच्छे स्वभाव की है शीला । पेंटिंग इतना बढ़िया करती है कि तुम देखोगी तो ताज्जुब करोगी । ”
अच्छा , तो फिर उसी के घर चलते हैं ‘ ” – मधु चलने को तैयार हो गई । सोमा ने घंटी बजाई तो शीला की मम्मी ने दरवाज़ा खोला ।
सोमा ने मधु का परिचय कराते हुए कहा- ” चाची यह है मधु । मेरी मौसी की लड़की । आओ तुम लोम भीतर आओ । शीला अपने कमरे में ही है . कहकर चाची फिर चौके में चली गईं ।
आहट पाकर शीला ने सिर उठाया तो सोमा के साथ किसी नई लड़की को देख वह अचकचा गई । उसने झट पेंटिंग ब्रश रखकर कहा- ” आओ सोमा । ” फिर मधु से बोली- ” आइए आप भी बैठिए ।
” सोमा ने हँसते हुए कहा- ” पहचाना नहीं शीला । यह मधु है । मेरी कलकत्ते वाली बहन । इसे आप नहीं , तुम कहो । ” ” लेकिन तुम लोग खड़ी क्यों हो , बैठो न । ” शीला ने सहज होते हुए कहा । सोमा कुर्सी खींचकर बैठ गई , लेकिन मधु वैसी की वैसी खड़ी रही । वह शीला को आश्चर्य से देखे जा रही थी । तभी शीला बोली- ” मेरे हाथ नहीं हैं । देखकर आपको अजीब सा लग रहा होगा ।
‘ नहीं तो । ” कहकर मधु भी बैठ गई । ऊपर से तो उसने नहीं कह दिया था , लेकिन उसके असहज व्यवहार को सोमा और शीला दोनों ने भाँप लिया था । थोड़ी देर इधर – उधर की बातें करके ही मधु उठ गई । हारकर सोमा को भी उठना पड़ा । { ” को जब दोनों फिर बातें करने बैठीं तो मधु बोली- “ सोमा , तुम्हारी शीला से कैसे दोस्ती है ? तुम्हारी जगह मैं होती तो कभी मित्रता न करती । न खेलना , न कूदना । बस सारे वक्त बातें । इस तरह तो तुम्हारी जिन्दगी भी चौपट हो जाएगी । ”
‘ नहीं मधु , तुम शीला को नहीं जानती । अब से चार साल पहले वह हम लोगों की तरह स्वस्थ और सुन्दर लड़की थी । एक दिन तार मिला कि नानी की हालत खराब हो गई है , तो शीला तुरन्त रवाना हो गई । जिस बस से वे लोग गईं , वह रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गई । चाची के सिर में चोट आई । मगर शीला के दोनों हाथ की हड्डियाँ चूर – चूर हो गईं । मजबूरन डॉक्टर को उसके दोनों हाथ काटने पड़े । शीला को जब होश आया तो अपने हाथ न देख वह फूट – फूट कर रोने लगी । चाचा , चाची और डॉक्टर सब समझा – समझा कर हार गए । मगर वह हर समय रोती रहती ।
” अपनी अकेली संतान को यों बिलखते देख चाची का बुरा हाल था । उन्हें यों रोता देख एक दिन डॉक्टर ने समझाया कि अगर आप यों हर समय उदास रहेंगी तो शीला को कैसे धैर्य आएगा । आप उसे खुश रखने की कोशिश करिए । तभी वह धीरे – धीरे सहज हो सकेगी । उस दिन से उन्होंने अपने सीने पर पत्थर रख लिया । तीन – चार महीने इलाज के लिए अस्पताल में रहना था । शीला का घाव धीरे – धीरे भरने लगा , लेकिन अब वह लेटे – लेटे ऊबने लगी । अचानक एक दिन चाची को ख्याल आया कि वह तो पढ़ने की बहुत शौकीन है । बस फिर क्या था । वे उसके लिए अच्छी अच्छी किताबें लाने लगीं ।
शीला का वक्त ठीक से गुजरने लगा । तभी एक दिन शीला ने कहा- ” मम्मी , आप मेरी कोर्स की किताबें ला दीजिए । में पढ़ती रहेंगी । नहीं तो मेरा साल बेकार हो जाएगा । ” चाची ने सुना तो प्रसन्नता से उनकी आँखें भर आई । उस दिन से शीला अस्पताल में कोर्स की किताबें पढ़ने लगी । समय बीतता गया और वह ठीक होकर घर आ गई । जब स्कूल पहुँची तो प्राचार्य ने यह कहकर उसे वापस भेज दिया कि वह अब सामान्य बच्ची तो है नहीं । इसलिए उसकी पढ़ाई यहाँ न हो सकेगी । उस दिन वह बहुत रोई । उसे लगा उसका जीना व्यर्थ हो गया ।
मगर चाची ने हिम्मत नहीं छोड़ी । उन्होंने शीला को समझाते हुए कहा- ” तुम घबड़ाओ नहीं बेटी । अगर तुम्हारे मन में पढ़ने की लगन है तो तुम ज़रूर पढ़ सकोगी । ” “ कैसे मम्मी ? मेरे तो हाथ ही नहीं है ? कैसे लिखूँगी ? कैसे पेंटिंग बनाऊँगी । कैसे अपना काम करूँगी ? जब परीक्षा नहीं दे सकूँगी तो मेरा पढ़ना , न पढ़ना सब बराबर हो जाएगा । “
शीला ने बुझे स्वर में कहा । ” नहीं बेटी , मेहनत कभी बेकार नहीं जाती । तुम भी सब करोगी । वैसे ही जैसे सब करते हैं । ” ‘ मगर कैसे मम्मी ? मैं कैसे कर पाऊँगी ? मेरे दोनों हाथ … । भगवान ने मुझे अपाहिज बनाकर क्यों छोड़ दिया । ” कहकर वह रो पड़ी ।
चाची ने उसके आँसू पोंछे । फिर प्यार से समझाते हुए कहा- “ देखो शीला , भगवान जब किसी से कुछ छीनता है तो उसे कुछ देता भी है । नहीं तो इन्सान का जीना दूभर हो जाए । तुम भी धैर्य रखो । मैं तुम्हारा नाम दिव्यांग बच्चों के स्कूल में लिखवा देती हूँ । वहाँ तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर सकोगी । हिम्मत हारने से तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा बेटे ।
” उसके बाद शीला विकलांगों के स्कूल में जाने लगी । मगर फिर भी वह हरदम उदास रहती । एक दिन स्कूल से लौटी तो बेहद खुश थी । चाची ने पूछा- ” आज मेरी बेटी बहुत खुश है । कोई खास बात है ? मुझे नहीं बताएगी !
” शीला ने कहा- ” मम्मी मेरे साथ एक लड़का पढ़ता है अनिल । वह देख नहीं सकता । वह आँखों का काम हाथों से लेता है । वह छू – छू कर ब्रेल लिपि से पढ़ता है । उसके पास एक घड़ी है । उसके उठे हुए अंकों को छूकर वह एकदम सही समय बता देता है । उसे देखकर मुझे लगा कि जब वह हाथों से आँखों का काम ले सकता है , तो फिर मैं अपने पैरों से हाथों का काम क्यों नहीं ले सकती ?
” सुनकर चाची के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । उन्होंने शीला को सीने से लगाकर कहा ” बेटी , तूने अपनी मंजिल पा ली है । अब तू कभी पीछे मुड़कर नहीं देखेगी । “
बस , उसी दिन से वह पैर से कलम पकड़कर लिखने का अभ्यास करने लगी । लिखने के अलावा टंग बनानी , पेंटिंग बनाना, खाना बनाना कई काम वह एक – एक कर पैरों से करने लगी । शुरू में उसे अटपटा लगता था । दिक्कत भी आती थी । मगर चाची ने सदा उसका मनोबल बढ़ाया और वह कामयाब होती गई । इस साल वह सातवीं की परीक्षा दे रही है । पेंटिंग तो वह इतनी अच्छी बनाती है कि उसे इस वर्ष चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है । उसने भी अन्य बच्चों की तरह भाग लिया था । आयोजकों के कहने पर भी उसने अधिक समय नहीं लिया । बोली- ” यह बेईमानी होगी ” और सबके देखते ही देखते पैर में ब्रश पकड़कर ऐसी सुन्दर सीनरी बनाई कि देखने वाले चकित रह गए ।
अब वह पढ़ने के बाद खाली समय में नए वर्ष , होली , दीवाली , ईद , क्रिसमस , जन्मदिन आदि के कार्ड्स पर सुन्दर – सुन्दर पेंटिंग बनाती है ; और उन्हें दुकान पर बिकने के लिए दे आती है । हर महीने वह इससे इतना धन कमा लेती है कि उससे उसकी अपनी जरूरतें पूरी हो जाती हैं । पढ़ने के लिए उसे छात्रवृत्ति मिल रही है । अपने मम्मी – पापा के आगे हाथ नहीं पसारती । सच कहूँ तो दिव्यांगता ने उसे अभी से आत्मनिर्भर बना दिया है । उसकी हार भी जीत में बदल गई है ।
मधु ठगी – सी बैठी सुनती रह गई । उसे लगा अब से कुछ देर पहले जिस लड़की को देखकर उसके मन में उपेक्षा का भाव आया था , वह उससे , कहीं अधिक महान है । मधु की नज़रों में शीला ऊँची , बहुत ऊँची उठ गई थी ।
महत्वपूर्ण शिक्षा
इस कहानी से हमें यह सीखें सीख मिलती है कि हमें जीवन में कोई भी मुसीबत आए हमें कभी भी घबराना नहीं चाहिए उसका हमें हिम्मत से सामना करना चाहिए जीवन में कुछ दुख आते हैं तो उसका सामना करके हम जीवन में हमेशा आगे बढ़ना चाहिए कभी भी हार नहीं माननी चाहिए