प्रकाश (Light) किसे कहते है ?
प्रकाश (Light) ऊर्जा का एक रूप है, जिससे देखने की संवेदना प्राप्त होती है यह विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के रूप में चलती है। प्रकाश निर्वात में भी गमन कर सकता है। निर्वात तथा वायु में प्रकाश की चाल 3×10⁸m/sec होती है। जल में यह 2.25×10⁸m/sec होती है।
प्रकाश की प्रकृति के बारे में सर्वप्रथम न्यूटन ने कणिका सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार प्रकाश छोटे-छोटे हल्के कणों से मिलकर बना है।
इस सिद्धांत के आधार पर परावर्तन-अपवर्तन आदि की व्याख्या की जा सकती है। लेकिन प्रकाश के व्यतिकरण, विवर्तन और ध्रुवण की व्याख्या नहीं हो सकतकी है।
प्रकाश का तरंगदैर्ध्य 3900A से 7800A के बीच होता है। प्रकाश-विद्युत प्रभाव एवं क्रॉम्पटन सिद्धान्त की व्याख्या आइन्सटीन द्वारा प्रतिपादित प्रकाश के फोटॉन सिद्धान्त द्वारा की जाती है। वास्तव में यह दोनों प्रभाव प्रकाश की कण प्रकृति को प्रकट करते हैं। कुछ घटनाओं में प्रकाश तरंग की तरह तथा कुछ घटनाओं में कण की तरह व्यवहार करता है। इसे प्रकाश की दोहरी प्रकृति (Dual nature of light) कहते हैं।
प्रकाश के प्रति व्यवहार के आधार पर वस्तुओं को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-
1. प्रतिदीप्त वस्तुएँ (Luminous objects)
जिन वस्तुओं का अपना प्रकाश होता है उन्हें दीप्त वस्तुएँ कहते हैं; जैसे-सूर्य, तारे, जलती मोमबत्ती, जलता बल्व आदि।
2. अप्रदीप्त वस्तुएँ (Non-luminous objects)
जिन वस्तुओं का अपना प्रकाश नहीं होता है, उन्हें अप्रदीप्त वस्तुएँ कहते हैं; जैसे-कुर्सी, टेबुल, मनुष्य आदि।
3. पारदर्शी वस्तुएँ (Transparent Objects)
जिन पदार्थों से प्रकाश गमन कर सकता है, उन्हें पारदर्शी कहते हैं; जैसे-काँच, हवा तथा पानी आदि।
4. अर्द्ध-पारदर्शी पदार्थ (Translucent objects)
कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिन पर प्रकाश की किरणें पड़ने से उनका कुछ भाग तो अवशोषित हो जाता है तथा कुछ भाग बाहर निकल जाता है। ऐसी वस्तुओं को अर्द्ध-पारदर्शक वस्तुएँ कहते हैं; जैस-तेल लगा हुआ कागज।
5. अपारदर्शक वस्तुएँ (Opaque objects)
जिन पदार्थों से होकर प्रकाश गमन नहीं कर सकता, उन्हें अपारदर्शी पदार्थ कहते हैं। जैसे-पत्थर, लकड़ी, लोहा आदि
प्रकाश का वेग (Velocity of light)-
1667 ई० में गैलीलियो ने प्रकाश का वेग ज्ञात करने को असफल प्रयोग किया। 1675 ई० में रोमर (डेनमार्क) ने प्रकाश के वेग की गणना करने में सफलता पायी।बाद में फीजो ने 1849 ई० में तथा फोको (Foucault) ने 1862 ई० में तथा माइकेल्सन (अमेरिका) ने 1926 ई० में प्रकाश का वेग ज्ञात करने में सफलता हासिल की।
• वायु तथा निर्वात में प्रकाश की चाल सर्वाधिक (3×10⁸ m/sec.) होती है।
• सूर्य से पृथ्वी तक प्रकाश 8 मिनट 18 सेकेंड (499 से०) में पहुँचता है।
• चंद्रमा से परावर्तित प्रकाश को पृथ्वी तक आने में 1.3 सेकेण्ड का समय लगता है।
• जिस माध्यम का अपवर्तनांक (u) जितना अधिक होगा, प्रकाश की चाल उतनी ही कम होगी-
विभिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल
1. नाइलन = 1.96×10⁸ मीटर/सेकेण्ड
2. जल = 2.25×10⁸ मीटर/सेकेण्ड
3. काँच = 2×10⁸ मीटर/सेकेण्ड
4. रॉक साल्ट = 1.96×10⁸ मीटर/सेकेण्ड
5. तारपीन = 2.04×10⁸ मीटर/सेकेण्ड
6. निर्वात = 3×10⁸ मीटर/सेकेण्ड
सूची-छिद्र कैमरा (Pin-hole camera)-
• इसमें लकड़ी का बना एक आयातकार बॉक्स होता है, जिसकी भीतरी दीवारें काले रंग से रंगी होती है।
• सामने वाली दीवार के ठीक मध्य में सुई के नोक के बराबर एक छिद्र/रहता है और पीछे वाली दीवार घिसे शीशे अथवा तेल लगी कागज की बनी होती है।
• जब हम कैमरे के सामने कोई वस्तु (Object) रखते हैं, तो इस वस्तु का उल्टा प्रतिबिम्ब (Image) कैमरे के पीछे वाली दीवार पर बनता है।
• वस्तु के ऊपरी भाग से निकलने वाली किरणें सीधी रेखा में चलकर पीछे वाली दीवार के निचले भाग में आती हैं और वस्तु के निचले भाग से निकलने वाली किरणें पीछे वाली दीवार के ऊपरी भाग में आती हैं।यही कारण है कि किसी वस्तु का उल्टा प्रतिबिम्ब इस कैमरे में दिखाई देता है।
इससे भी सिद्ध होता है कि प्रकाश किरणें सीधे रेखाओं में गमन करती है।
• यदि कैमरे की सामने वाली दीवार पर एक से अधिक छिद्र कर दिया जाए, तो पीछे वाली दीवार पर छिद्रों की संख्या के बराबर ही प्रतिबिम्बों की संख्या होगी।
• यदि अनेक छिद्रों के बदले एक ही बड़ा छिद्र कर दिया जाये तब भी उसी तरह का प्रतिबिम्ब बनेगा, क्योंकि बड़े छिद्र को हम छोटे छिद्रों का समूह मान सकते हैं।
• प्रतिबिम्ब का आकार छिद्र से परदे की दूरी और बिम्ब से छिद्र की दूरी पर निर्भर करता है।
• बड़े आवर्धन के लिए छिद्र से बिम्ब की दूरी कम होनी चाहिए।
• यदि परदे की जगह एक फोटोग्राफिक प्लेट लगा दिया जाए, तो इससे बहुत ही संतोषजनक चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं।
प्रच्छाया एवं उपच्छाया (Umbra and Penumbra)-
जब प्रकाश किरणों के रास्ते में कोई अपारदर्शी वस्तु आ जाती है, तो प्रकाश की किरणें आगे नहीं जा पाती है वस्तु के आगे परदा रहने पर परदे के प्रकाशित भाग के बीच कुछ भाग ऐसा होता है, जो काला दिखता है, क्योंकि वहाँ अंधकार रहता है।इस भाग को छाया कहते हैं।
छाया की लम्बाई तथा आकार-
(i) प्रकाश के उद्गम
(ii) अपारदर्शी वस्तु के आकार तथा
(iii) प्रकाश के उद्गम तथा वस्तु के बीच की दूरी पर निर्भर करता है।
जब प्रकाश का उद्गम बिन्दुवत् हो तो उससे बनने वाली छाया में एक जैसा अंधकार रहता है। जब प्रकाश के उद्गम का विस्तार रुकावट की अपेक्षाब ड़ा हो, तो छाया के मध्य भाग में प्रकाश एकदम नहीं पहुँचने के कारण पूर्ण अंधकार रहता है, यह प्रच्छाया (Umbra) कहलाता है और जिस भाग में अंशतः प्रकाश पहुँचता है, उसे उपच्छाया (Penumbra) कहते हैं।
ग्रहण (Eclipse)
1. सूर्यग्रहण (Solar Eclipse)
जब सूर्य तथा पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है, तो चन्द्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है और उस भाग में सूर्य नहीं दिखाई पड़ता है, इसे ही सूर्य ग्रहण कहते हैं। ऐसी स्थिति अमावस्या (New moon) के दिन होती है।
2. चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse)-
जब सूर्य एवं चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी आ जाती है और पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है, तो चन्द्रमा का वह भाग दिखलाई नहीं पड़ता है।, इसे ही चन्द्रग्रहण कहते हैं। ऐसी स्थिति पूर्णिमा (Full moon) के दिन होती है।
समतल सतहों पर परावर्तन एवं अपवर्तन
(Reflection and Refraction at plane surfaces)
प्रकाश का परावर्तन (Reflection of light)
जब प्रकाश किसी चमकदार तल जैसे दर्पण पर पड़ता है, तो वह उसी माध्यम में लौट जाता है। इस घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं।
परावर्तन के नियम (Law of reflection)
प्रथम नियम : आपतित किरण, परावर्तित किरण तथा आपतन बिंदु पर अभिलम्ब ये तीनो एक ही तल में होते है।
द्वितीय नियम : आपतन कोण और परावर्तन कोण दोनों आपस में बराबर होते हैं।
समतल दर्पण के उपयोग
समतल दर्पण का उपयोग बहुरूपदर्शी (Kaleidoscope), परिदर्शी (Periscope), आईना (Looking glass) आदि में करते हैं।
1. बहुरूपदर्शी (Kaleidoscope)-
इसमें समान लम्बाई तथा समान चौड़ाई के तीन आयताकार समतल दर्पण इस प्रकार लगे रहते हैं कि दो दर्पण के बीच 60° का कोण बनता है। तीनों दर्पणों के परावर्तक तल भीतर की ओर रहते हैं और दर्पणों द्वारा घिरे स्थान में रंगीन काँच के कुछ टुकड़े रहते हैं।ये तीनों दर्पण एक मोटी नली के अन्दर लगे रहते हैं। नली के एक सिरे पर शीशे वाले सिरे से नली में देखते हैं, तो नली को घुमाने से नई-नई रंगीन आकृतियाँ दिखाई देती है। ये आकृतियाँ रंगीन काँच की प्रतिबिम्ब हैं, जो समतल दर्पणों से बार-बार परावर्तित होने के कारण बनते हैं। नली को घुमाने से रंगीन काँच के टुकड़ों की स्थितियाँ बदल जाती हैं और इसलिए आकृतियों के रंग बदल जाते हैं।
2. परिदर्शी (Periscope)-
इसमें दो समतल दर्पण एक-दूसरे से 45° कोण पर स्थित होते हैं। इन दर्पणों की परावर्तक सतहें आमने-सामने रहती हैं। अतः ऊपर वाले सिरे से होकर प्रवेश करने वाली किरणें दर्पण द्वारा परावर्तित होकर नीचे की ओर आती हैं और दूसरे दर्पण द्वारा परावर्तित होकर आँखों में प्रवेश करती हैं। इसी कारण युद्ध के समय बंकर में छिपे सैनिक जमीन पर चल रहे दुश्मनों की गतिविधियों को देखने के लिए इस उपकरण का उपयोग करते हैं।पनडुब्बी जहाज में भी इस उपकरण का प्रयोग करते हैं।पेरिस्कोप के द्वारा समुद्र के अन्दर से बाहर की वस्तुओं को देखने में उपयोग किया जाता है।
गोलीय दर्पण (Spherical Mirror)-
किसी गोलाकार तल से बनाए गए दर्पण को गोलीय दर्पण कहते हैं। गोलीय खंड के एक तल पर पारे की कलई एवं रेड ऑक्साइड का लेप किया जाता है तथा दूसरा तल परावर्तक की तरह कार्य करता है।
गोलीय दर्पण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
(i) अवतल दर्पण
(ii) उत्तल दर्पण।
(i) अवतल दर्पण (Concave mirror)-
जिस गोलीय दर्पण का परावर्तक तल धंसा रहता है, उसे अवतल दर्पण कहते हैं। अवतल दर्पण को अपसारी दर्पण (Diverging Miror) भी कहा जाताहै क्योंकि यह अनंत से आने वाली किरणों को एक बिन्दुवत कर देती है।
(ii) उत्तल दर्पण (Convex mirror)-
जिस गोलीय दर्पण का परावर्तक सतह उभरा रहता है, उसे उत्तल दर्पण कहा जाता है। उत्तल दर्पण को अभिसारी दर्पण (Converging miror) भी कहा जाता है क्योंकि यह अनंत से आने वाली किरणों को फैला देती है।) अवतल एवं उत्तल दोनों ही दर्पण किसी गोले के कटे भाग होते हैं अतः उस गोले का केन्द्र दर्पण का वक्रता केन्द्र (Centre of curvature) कहलाता है। दर्पण का मध्य बिन्दु (Pole) कहलाता है।
उत्तल दर्पण के उपयोग–
• उत्तल दर्पण द्वारा काफी बड़े क्षेत्र की वस्तुओं का प्रतिबिम्ब एक छोटे से क्षेत्र में बन जाता है।
• इस प्रकार उत्तल दर्पण का दृष्टि-क्षेत्र (Field view) अधिक होता है।इसलिए इसे ट्रक-चालकों या मोटरकारों में चाल के बगल में पृष्ठ-दृश्य दर्पण (Rear-viewMirror) लगाया जाता है।
• सड़क में लगे परावर्तक लैम्पों में उत्तल दर्पण का प्रयोग किया जाता है, विस्तार-क्षेत्र अधिक होने के कारण ये प्रकाश को अधिक क्षेत्र में फैलाते हैं।
अवतल दर्पण के उपयोग–
(I) बड़ी फोकस दूरी वाला अवतल दर्पण दाढ़ी बनाने में काम आता है।
(ii) आँख, कान एवं नाक के डॉक्टर के द्वारा उपयोग में लाया
जाने वाला दर्पण
(iii) गाड़ी के हेडलाइट (Head-light) एवं सर्चलाइट (Search-light)
(iv) सोलर कुकर (Solar Cooker) में।
* प्रकाशु का फोटॉन सिद्धांत
इसके अनुसार प्रकाश ऊर्जा के छोटे-छोटे बण्डलों या पैकिटों के रूप में चलता है, जिन्हें फोटॉन कहते हैं। प्रकाश की कुछ घटनाओं में तरंग और कुछ कण माना जाता है। इसी का प्रकाश की दोहरी प्रकृति कहते हैं। प्रकाश के वेग की गणना सबसे पहले रोमर ने की। प्रकाश की चाल माध्यम के अपवर्तनांक (u) पर निर्भर करता है। जिस
माध्यम का अपवर्तनांक जितना अधिक होता है
प्रकाश का विवर्तन (Diffraction of light)
प्रकाश को अवरोध के किनारे पर थोड़ा मुड़कर उसकी छाया में प्रवेश करने की घटना को विवर्तन कहते हैं।
प्रकाश का प्रकीर्णन (Scattering of light)
जब सूर्य का प्रकाश वायुमण्डल में उपस्थित वाष्प, वायु के अणु तथा धूल के ऐसे कणों पर आपतित होता है जिनका आकार प्रकाश की तरंगदैर्य से छोटा हो तो प्रकाश विभिन्न दिशाओं में बिखर जाता है। प्रकाश के इस प्रकार बिखरने को प्रकीर्णन कहते हैं।
आकाश का रंग नीला, प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण होता है।
यदि वायुमण्डल नहीं हो तो प्रकीर्णन नहीं होगा और आकाश काला दिखाई देगा। खतरे के सिग्नल के लिए लाल रंग का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि लाल रंग के प्रकाश के लिए प्रकीर्णन सबसे कम होता है तथा बैंगनी रंग का प्रकीर्णन सबसे अधिक होता है।
किरण पुंज (Beam of Light)
साथ-साथ चलती प्रकाश किरणों के समूह को प्रकाश पुंज कहते हैं।
प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of light)
जब प्रकाश की किरणे एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती हैं तो वह अपने मार्ग से विचलित हो जाती हैं। इसे प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं।
* पूर्ण आंतरिक परावर्तन (Total Internal reflection)
यदि सघन माध्यम से विरल माध्यम में जाती हुई किसी प्रकाश किरण का आपतन कोण, क्रांतिक कोण से अधिक होता है तो अपवर्तन नहीं होता है। ‘ आपतित किरण सघन माध्यम में परावर्तित हो जाती है। इस प्रक्रिया को
पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते हैं।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के लिए अनिवार्य शर्ते (Essential Conditions for total Internal reflection)
(i) प्रकाश की किरणों को सघन से विरल माध्यम में जाना चाहिए।
(ii) आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण से बड़ा होना चाहिए।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के कुछ उदाहरण
1. हीरे की चमक-
हीरे से वायु में आने वाली किरण के लिए क्रान्तिक कोण बहुत ही कम (24°) होता है। अतः जब बाहर का प्रकाश किसी कटे हुए हीरे में प्रवेश करता है, तो वह उसके भीतर विभिन्न तलों बार-बार पूर्ण परावर्तित होता रहता है। जब किसी तल पर आपतन कोण 24 से कम हो जाता है, तब ही प्रकाश हीरे से बाहर आ पाता है। इन प्रकार हीरे में सभी दिशाओं से प्रवेश करने वाला प्रकाश केवल कुछ ही दिशाओं में होरे से बाहर निकलता है।
2. रेगिस्तान में मरीचिका (Mirrage)-
कभी कभी रेगिस्तान में यात्रियों को दूर से पेड़ के साथ साथ उसका उल्य प्रतिबिम्ब भी दिखायी देता है। इससे यात्रियों को ऐसा भ्रम हो जाता है कि वहाँ जल का तालाब है, जिसमें पेड़ का उल्टा प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है। परन्तु वास्तव में वहाँ तालाब नहीं होता है।
गर्मी के मौसम में रेगिस्तान की रेत गरम होती है, तो उसे छूकर पृथ्वी के पास की वायु अधिक गरम हो जाती है, जिससे वायु का घनत्व कम हो जाता है। ऊपर की वायु-परत ठंडी और सघन होती है। अतः जैसे-जैसे हम ऊपर से नीचे आते हैं, वायु की परतु विरल होती जाती है।जब पेड़ से प्रकाश की किरणें पृथ्वी की ओर आती हैं, तो उन्हें अधिकाधिक विरल परतों से होकर जाना पड़ता है, इसलिए प्रत्येक परत पर अपवर्तित किरण अभिलंब से दूर हटती जाती है।
प्रत्येक अगली परत पर आपतन कोण बढ़ता जाता है तथा किसी विशेष परत पर कातिक कोण से बड़ा हो जाता है। इस परत पर किरण पूर्ण परावर्तित होकर ऊपर की ओर उठने लगती है। चूँकि ऊपर वाले परतें अधिक सघन हैं, अतः ऊपर उठती हुई किरण अभिलंब की ओर झुकती जाती है। जब यह किरण यात्री की आँख में प्रवेश करती है, तो उसे पृथ्वी के नीचे से आती हुई प्रतीत होती है तथा यात्री को पेड़ का उल्टा प्रतिबिम्ब दिखायी देता है। यात्री को उल्टा प्रतिबिम्ब दिखलायी पड़ने के कारण उसे जल का भ्रम होने लगता है।
3. काँच का चटका हुआ भाग चमकीला दिखाई देता है–
काँच के चटके हुए भाग में हवा भर जाती है, जोकि काँच की अपेक्षा विरल होती है।जब प्रकाश काँच से हवा में प्रवेश करता है, तो उसका सघन माध्यम से विरल माध्यम में अपवर्तन होता है। काँच से हवा में प्रवेश करते समय आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण से अधिक हो जाता है, तो पूर्ण आंतरिक परावर्तन होने लगता है। इसी कारण चटका हुआ काँच चमकीला प्रतीत होता है।
4. पानी में पड़ी हुई परखनली चमकीली दिखाई पड़ती है-
जब पानी से अंशतः भरी हुई परखनली को पानी से भरे बीकर में डुबाते हैं, तो परखनली के जिस भाग में पानी नहीं होता अर्थात् परखनली का खाली भाग चाँदी की तरह चमकने लगता है। इसका कारण भी प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परावर्तन है।सिनेमाघर में पोलराइड के चश्मे पहन कर तीन विमाओं वाले चित्रों को देखा जाता है। इसी प्रकार फोटोग्राफी करने में, किसी विलयन में शर्करा की सान्द्रता ज्ञात करने में, धातुओं के प्रकाशीय गुणों के अध्ययन करने में भी पोलराइडों का प्रयोग किया जाता है।
अपवर्तनांक (Refractive Index)
निर्वात् में प्रकाश के वेग और किसी माध्यम में प्रकाश के वेग के अनुपात को उस माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक या अपवर्तनांक कहते हैं।
* एक माध्यम का दूसरे माध्यम की अपेक्षा अपवर्तनांक (Refractive Index of one medium with respect to another medium)
पहले माध्यम में आपतन कोण की ज्या और दूसरे माध्यम में अपवर्तन कोण की ज्या के अनुपात को पहले माध्यम की अपेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक कहते हैं।
पार्श्व विस्थापन (Lateral displacement)
किसी आयताकार सिल्ली से अपवर्तन की स्थिति में निर्गत किरण और आपतित किरण के बीच की लम्बवत् दूरी को पार्श्व विस्थापन कहते हैं।
वास्तविक प्रतिबिम्ब (Real Image)
जब प्रकाश की किरण-पुंज किसी बिन्दु से फैलती हुई तथा परावर्तन अथवा अपवर्तन के बाद किसी दूसरे बिन्दु की ओर सिमटती है, तो दूसरे बिन्दु को पहले बिन्दु का वास्तविक पर्दे पर बनाया जा सकता है। वास्तविक प्रतिबिम्ब पर्दे पर बनाया जा सकता है।
काल्पनिक प्रतिबिम्ब (Virtual Image)
जब किसी बिन्दु से फैलता कोई किरण-पुंज परावर्तन अथवा अपवर्तन के बाद एक अन्य बिन्दु से फैलता हुआ प्रतीत होता है, तो दूसरे बिन्दु को पहले बिन्दु का काल्पनिक प्रतिबिम्ब कहते हैं। काल्पनिक प्रतिबिम्ब को पर्दे पर नहीं बनाया जा सकता है।
प्रकाशिक तन्तु (Optical Fibres)
प्रकाश सरल रेखा में गमन करता है, लेकिन पूर्ण आन्तरिक परावर्तन का उपयोग करके प्रकाश को एक वक्रीय मार्ग में चलाया जा सकता है। प्रकाशिक तन्तु पूर्ण आंतरिक परावर्तन के सिद्धांत पर आधारित एक ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा प्रकाश सिग्नल को, इसकी तीव्रता में बिना क्षय के एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित किया जा सकता है, चाहे मार्ग कितना भी
टेढ़ा-मेढ़ा हो।
प्रकाशिक तन्तु का उपयोग-
(i) प्रकाश सिग्नल के दूरसंचार में।
(ii) विद्युत् सिग्नल को प्रकाश सिग्नल में बदलकर प्रेषित करने तथा अभिग्रहण
(iii) मनुष्य के शरीर के आंतरिक भागों का परीक्षण करने में।
(iv) शरीर के अन्दर लेसर किरणों को भेजने में।
Important Facts
1. सर्वप्रथम न्यूटन (Newton) ने बताया कि श्वेत प्रकाश सभी रंगों के प्रकाश से मिलकर बना है। न्यूटन ने ही बताया कि प्रकाश अत्यन्त सूक्ष्म कणों का बना होता है और वह सीधी रेखा में गमन करता है।
2. भौतिकशास्त्री हाइजेन (Huygens) ने प्रकाश का तरंग सिद्धान्त (wave theory) दिया। इसने बताया कि प्रकाश तरंगों से बना होता है।
3. सन् 1800 ई० में अंग्रेज भौतिकीवेत्ता थॉमस यंग (Thomas Young) ने प्रकाश के व्यतिकरण (Interference of light) का सिद्धान्त दिया। उसने दिखाया कि दो प्रकाश किरण पुंज कुछ निश्चित परिस्थिति में एक-दूसरे को समाप्त कर देते हैं। अधिकांश वैज्ञानिकों ने यंग के प्रयोग को प्रकाश के तरंग सिद्धान्त की सत्यता का प्रमाण मान लिया।
4. सन् 1864 ई० में ब्रिटिश भौतिकशास्त्री मैक्सवेल (Maxwell) ने विद्युत-चुम्बक (Electromagnetism) का गणितीय सिद्धान्त दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार, “विद्युतीय क्षेत्र और चुम्बकीय क्षेत्र के बदलते स्वरूप के कारण जो प्रभाव उत्पन्न होता है, वही तरंगों की गति के लिए उत्तरदायी होता है। मैक्सवेल तरंग संबंधी इस सिद्धांत के गणितीय गुण प्रकाश के लिए आकलित गुणों से मिलते थे। कंपन कर रहे विद्युतीय आवेशों द्वारा जो प्रकाश उत्पन्न होता है, वह परमाणु में उपस्थित विद्युत आवेश ही है। मैक्सवेल के इस कार्य से प्रकाश के तरंग स्वरूप की ओर भी मान्यता मिली।
5. क्वाण्टम यांत्रिकी (Quantum mechanics)–सन् 1900 ई० में जर्मन भौतिकविद् मैक्स प्लांक (Max Planck) ने एक समीकरण दिया जो किसी गर्म सतह से उत्सर्जित होने वाले प्रकाश के प्रायोगिक आँकड़ों से मेल खाता था। उन्होंने अनुभव किया कि सतह के प्रकाश उत्सर्जक में ऊर्जा की छोटी मात्रा होती है। जब ऊर्जा की मात्रा एक निश्चित मात्रा में होती है, तो उसे क्वाण्टम कहा जाता है।
6. सन् 1905 ई० में आइंस्टीन (Einstein) ने इस तथ्य का उद्घाटन किया कि प्रकाश भी क्वांटाइज्ड होता है। प्रकाश छोटे-छोटे ऊर्जा समूहों में आता है, जिसे क्वाण्टा कहते हैं। प्रकाश की ऊर्जा-समूह (क्वांटाइज्ड ऊर्जा) की परिकल्पना से उसके कण होने का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रकाश के इन कणों को फोटॉन (Photon) कहा गया